August 10, 2013

NO LEFT-FRONT BUT BRAHMAN-FRONT RUNS THE SHOW IN WEST BENGAL

[The casteist Brahmin supremacy, hegemony or whatever must shatter or fall apart in order for South Asia to change and grow strong socio-economically. Both India and Nepal run in accordance with 'Dharma Shutras' (धर्म शूत्र) which got evidenced by recent Belbari Morang incident in Nepal. The case with India is even worse. The ex-Indian Railway Minister Pawan Kumar Bansal sacrificed a goat to save his job but did lose eventually. And the Bhartiya Janata Party Member of Parliament Jay Narayan Prasad Nishad has recently offered a Puja in his New Delhi home. In the article below the author believes Brahmans are running the show in West Bengal also. - The Blogger]

वाममोर्चा नहीं, बंगाल में ब्राह्मण मोर्चा का राज

लेखक  पलाश विश्वास
राजनीतिक आरक्षण बेमतलब पब्लिक को उल्लू बनाकर वोट बैंक की राजनीति में समानता मृगतृष्णा के सिवाय कुछ भी नहीं। मीना - गुर्जर विवाद हो या फिर महिला आरक्षण विधायक, हिन्दूराष्ड्र हो या गांधीवाद समाजवाद या मार्क्सवाद माओवाद सत्तावर्ग का रंग बदलता है, चेहरा नहीं। विचारधाराएं अब धर्म की तरह अफीम है और सामाजिक संरचना जस का तस।

पिछले वर्षों में बंगाल में माध्यमिक और उच्च माध्यमिक परीक्षाओं में हिन्दुत्ववादी सवर्ण वर्चस्व वाले वाममोर्चा का वर्चस्व टूटा है। कोलकाता का बोलबाला भी खत्म। जिलों और दूरदराज के गरीब पिछड़े बच्चे आगे रहे हैं। इसे वामपंथ की प्रगतिशील विचारधारा की धारावाहिकता बताने से अघा नहीं रहे थे लोग। पर सारा प्रगतिवाद, उदारता और विचारधारा की पोल इसबार खुल गयी ,जबकि उच्चमाध्यमिक परीक्षाओं में सवर्ण वर्टस्व अटूट रहने के बाद माध्यमिक परीक्षाओं में प्रथम तीनों स्थान पर अनुसूचित जातियों के बच्चे काबिज हो गए। पहला स्थान हासिल करने वाली रनिता जाना को कुल आठ सौ अंकों मे ७९८ अंक मिले। तो दूसरे स्थान पर रहने वाले उद्ध्वालक मंडल और नीलांजन दास को ७९७अंक। तीसरे स्थान पर समरजीत चक्रवर्ती को ७९६ अंक मिले। पहले दस स्थानों पर मुसलमान और अनुसूचित छात्रों के वर्चस्व के मद्देनजर सवर्ण सहिष्णुता के परखच्चे उड़ गये। अब इसे पंचायत चुनाव में धक्का खाने वाले वाममोज्ञचा का ुनावी पैंतरा बताया जा रहा है। पिछले तेरह सालों में पहली बार कोई लड़की ने टाप किया है, इस तथ्य को नजर अंदाज करके माध्यमिक परीक्षाओं के स्तर पर सवालिया निशान लगाया जा रहा है। बहसें हो रही हैं। आरोप है कि मूल्यांकन में उदारता बरती गयी है। पिछले छह दशकों में जब चटर्जी, बनर्जी मुखर्जी, दासगुप्त, सेनगुप्त बसु, चक्रवर्ती उपाधियों का बोलबाला था और रामकृष्ण मिशन के ब्राह्ममण बच्चे टाप कर रहे थे, ऐसे सवाल कभी नहीं उछे। आरक्षण के खिलाफ मेधा का का तर्क देने वालो को मुंहतोड़ जवाब मिलने के बाद ही ये मुद्दे उठ रहे हैं प्रगतिशील मार्क्सवादी बंगील में।

ये दावा करते रहे हैं की अस्पृश्यता अब अतीत की बात है। जात पांत और साम्प्रदायिकता , फासीवाद का केंद्र है नवजागरण से वंचित उत्तर भारत। इनका दावा था कि बंगाल में दलित आन्दोलन की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि यहां समाज तो पहले ही बदल गया है।

दरअसल कुछ भी नहीं बदला है। प्रगतिवाद और उदारता के बहाने मूलनिवासियों को गुलाम बनाकर ब्राह्मण तंत्र जीवन के हर क्षेत्र पर काबिज है। बंगाल और केरल वैज्ञानिक ब्राह्मणवाद की चपेट में हैं।

बंगाल में वाममोर्चा नहीं, ब्राह्मणवाद का राज है।

बंगाल में ब्रह्मणों की कुल जनसंख्या २२.४५लाख है, जो राज्य की जनसंख्या का महज . प्रतिशत है। पर विधानसभा में ६४ ब्राह्मण हैं राज्य में सोलह केबिनेट मंत्री ब्राह्मण हैं। दो राज्य मंत्री भी ब्राह्मण हैं। राज्य में सवर्ण कायस्थ और वैद्य की जनसंख्या ३०.४६ लाख है, जो कुल जनसंख्या का महज . प्रतिशत हैं। इनके ६१ विधायक हैं। इनके केबिनेट मंत्री सात और राज्य मंत्री दो हैं। अनुसूचित जातियों की जनसंख्या १८९ लाख है, जो कुल जनसंख्या का २३. प्रतिशत है। इन्हें राजनीतिक आरक्षण हासिल है। इनके विधायक ५८ है। . प्रतिशत ब्राह्मणों के ६४ विधायक और २३. फीसद सअनुसूचितों के ५८ विधायक। अनुसूचितो को आरक्षण के बावजूद सिर्फ चार केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री, कुल जमा छह मंत्री अनुसूचित। इसी तरह आरक्षित ४४.९० लाख अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या , कुल जनसंख्या का . प्रतिशत, के कुल सत्रह विधायक और दो राज्य मंत्री हैं। राज्य में १८९.२० लाख मुसलमान हैं। जो जनसंख्या का १५.५६ प्रतिशत है। इनकी माली हालत सच्चर कमिटी की रपट से उजागर हो गयी है। वाममोर्चा को तीस साल तक लगातार सत्ता में बनाये रखते हुए मुसलमानों की औकात एक मुश्त वोटबैंक में सिमट गयी है। मुसलमाल इस राज्य में सबसे पिछड़े हैं। इनके कुल चालीस विधायक हैं , तीन केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री। मंडल कमीशन की रपट लागू करने के पक्ष में सबसे ज्यादा मुखर वामपंथियों के राज्य में ओबीसी की हालत सबसे खस्ता है। राज्य में अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या ३२८.७३ लाख है, जो कुल जनसंख्या का ४१ प्रतिशत है। पर इनके महज ५४ विधायक और एक केबिनेट मंत्री हैं। ४१ प्रतिशत जनसंखाया का प्रतिनिधित्व सिर्फ एक मंत्री करता है। वाह, क्या क्रांति है।

अनुसूचित जातियों, जनजातियों के विधायकों, सांसदों और मंत्रियों की क्या औकात है, इसे नीतिगत मामलों और विधायी कार्यवाहियों में समझा जासकता है। बंगाल में सारे महत्वपूर्ण विभाग या तो ब्राह्मणों के पास हैं या फिर कायस के पास। बाकी सिर्फ कोटा। ज्योति बसु मंत्रिमंडल और पिछली सरकार में शिक्षा मंत्री कान्ति विश्वास अनुसूचित जातियों के बड़े नेता हैं। उन्हें प्राथमिक शिक्षा मंत्रालय मिला हुआ था। जबकि उच्च शिक्षा मंत्रालय सत्य साधन चकत्रवर्ती के पास। नयी सरकार में कांति बाबू का पत्ता साफ हो गया। अनूसूचित चार मंत्रियों के पास गौरतलब कोई मंत्रालय नहीं है। इसीतरह उपेन किस्कू और विलासीबाला सहिस के हटाए जाने के बाद आदिवासी कोटे से बने दो राज्यंत्रियों का होना होना बराबर है। रेज्जाक अली मोल्ला के पास भूमि राजस्व दफ्तर जैसा महत्वपूर्ण महकमा है। वे अपने इलाके में मुसलमान किसानों को तो बचा ही नहीं पाये, जबकि नन्दीग्राम में मुसलमान बहुल इलाके में माकपाई कहर के बबावजूद खामोश बने रहे। शहरी करण और औद्यौगीकरण के बहाने मुसलमाल किसानों का सर्वनाश रोकने के लिए वे अपनी जुबान तक खोलने की जुर्रत नहीं करते। दरअसल सवर्ण मंत्रियों विधायकों के अलावा बाकी तमाम तथाकथित जनप्रतिनिधियों की भूमिका हाथ उठाने के सिवाय कुछ भी नहीं है।

ऐसे में राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वोट के अलावा और क्या हासिल हो सकता है?

शरद यादव और राम विलास पासवान जैसे लोग उदाहरण हैं कि राजनीतिक आरक्षण का हश्र अंतत क्या होता है। १९७७ के बाद से हर रंग की सरकार में ये दोनों कोई कोई सिद्धान्त बघारकर चिरकुट की तरह चिपक जाते हैं।

बंगाल के किसी सांसद या विधायक नें पूर्वी बंगाल के मूलनिवासी पुनवार्सित शरणार्थियों के देश निकाले के लिए तैयार नये नागरिकता कानून का विरोध नहीं किया है। हजारों लोग जेलों में सड़ रहे हैं। किसी ने खबर नहीं ली।

अब क्या फर्क पड़ता है कि है कि मुख्यमंत्री बुद्धबाबू रहे या फिर ममता बनर्जी? बंगाल के सत्ता समीकरण या सामाजिक संरचना में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने जा रहा है। जो नागरिक समाज और बुद्धिजीवी आज वामपंथ के खिलाफ खड़े हैं और नन्दीग्राम सिंगुर जनविद्रोह के समर्थन में सड़कों पर उतर रहे हैं, वे भी ब्राह्मण हितों के विरुद्ध एक लफ्ज नहीं बोलते। महाश्वेता देवी मूलनिवासी दलित शरणार्थियों के पक्ष में एक शब्द नहीं लिखती। हालांकि वे भी नन्दीग्राम जनविद्रोह को दलित आंदोलन बताती हैं। मीडिया में मुलनिवासी हक हकूक के लिए एक इंच जगह नहीं मिलती।

अस्पृश्यता को ही लीजिए। बंगाल में कोई जात नहीं पूछता। सफल गैरबंगालियों को सर माथे उठा लेने रिवाज भी है। मां बाप का श्राद्ध करने की वजह से नासितक धर्म विरोधी माकपाइयों के कहर की चर्चा होती रही है। मंत्री सुभाष चक्रवर्ती के तारापीठ दर्श पर हुआ बवाल भी याद होगा। दुर्गा पूजा काली पूजा कमिटियों में वामपंथियों की सक्रिय भूमिका से शायद ही कोई अनजान होगा। मंदिर प्रवेश के लिए मेदिनीपुर में अछूत महिला की सजा की कथा भी पुरानी है। स्कूलों में मिड डे मिल खाने से सवर्ण बच्चों के इनकार का किस्सा भी मालूम होगा। वाममोर्चा चेयरमैन माकपा राज्य सचिव के सामाजिक समरसता अभियान के तहत सामूहिक भोज भी बहुप्रचारित है। विमान बसु मतुआ सम्मेलन में प्रमुख अतिथि बनकर माकपाई वोट बैंक को मजबूत करते रहे हैं। पर इसबार नदिया और उत्तर दक्षिण चौबीस परगना के मतुआ बिदक गये। ठाकुरनगर ठाकुर बाड़ी के इशारे पर हरिचांद ठाकुर और गुरू चांद ठाकुर के अनुयायियों ने इसबार पंचायत चुनाव में तृणमुल कांग्रेस को समर्थन दिया। गौरतलब है कि इसी ठाकुर बाड़ी के प्रमथनाथ ठाकुर जो गुरू चांद ठाकुर के पुत्र हैं, को आगे करके बंगाल के सवर्णों ने भारतीय मूलनिवासी आंदोलन के प्रमुख नेता जोगेन्द्र नाथ मंडल को स्वतंत्र भारत में कोई चुनाव जीतने नहीं दिया। वैसे ही जैसे महाराष्ट्र में बाबा साहेब अंबेडकर सवर्ण साजिश से कोई चुनाव जीत नहीं पाये।

हरिचांद ठाकुर का अश्पृश्यता मोचन आन्दोलन की वजह से १९२२ में बाबासाहेब के आन्दोलन से काफी पहले बंगाल में अंग्रेजों ने अस्पृश्यता निषिद्ध कर दी। बंगाल के किसान मूलनिवासी आंदोलन के खिलाफसवर्ण समाज और नवजागरण के तमाम मसीहा लगातार अंग्रेजों का साथ देते रहे। बैरकपुर से १८५७ को महाविद्रोह की शुरुआत पर गर्व जताने वाले बंगाल के सत्तावर्ग ने तब अंग्रेजों का ही साथ दिया था। गुरूचांद ठाकुर ने कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में शामिल होने के महात्मा गांधी की अपील को यह कहकर ठुकरा दिया था कि पहले सवर्ण अछूतों को अपना भाई मानकर गले तो लगा ले। आजादी से पहले बंगाल में बनी तीनों सरकारों के प्रधानमंत्री मुसलमान थे और मंत्रमंडल में श्यामा हक मंत्रीसभा को छोड़कर दलित ही थे। बंगाल अविभाजित होता तो सत्ता में आना तो दूर, ज्योति बसु, बुद्धदेव, विधान राय , सिद्धा्र्थ शंकर राय या ममता बनर्जी का कोई राजनीतिक वजूद ही नहीं होता। इसीलिए सवर्ण सत्ता के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा थी कि भारत का विभाजन हो या हो, पर बंगाल का विभाजन होकर रहेगा। क्योंकि हम हिंदू समाज के धर्मांतरित तलछंट का वर्चस्व बर्दाश्त नहीं कर सकते। बंगाल से शुरू हुआ राष्ट्रीय दलित आन्दोलन , जिसके नेता अंबेडकर और जोगेन्द्र नाथ मंडल थे। बंगाल के अछूत मानते थे कि गोरों से सत्ता का हस्तान्तरण ब्राह्ममों को हुआ तो उनका सर्वनाश। मंडल ने साफ साफ कहा था कि स्वतन्त्र भारत में अछूतों का कोई भविष्य नहींहै। बंगाल का विभाजन हुआ। और पूर्वी बंगाल के दलित देश भर में बिखेर दिये गये। बंगाल से बाहर वे फिर भी बेहतर हालत में हैं। हालिए नागरिकता कानून पास होने के बाद ब्राह्मण प्रणव बुद्ध की अगुवाई में उनके विरुद्ध देश निकाला अभियान से पहले भारत के दूसरे राज्यों में बसे बंगाली शरणार्थियों ने कभी किसी किस्म के भेदभाव की शिकायत नहीं की।

पर बंगाल में मूलनिवासी तमाम लोग अलित, आदिवासी, ओबीसी और मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक हैं। अस्पृश्यता बदस्तूर कायम है।

अभी अभी खास कोलकाता के मेडिकल कालेज हास्टल में नीची जातियों के पेयजल लेने से रोक दिया सवर्णर छात्रों ने। ऐसा तब हुआ जबकि वाममोर्चा को जोरदार धक्का देने का जश्न मना रही है आम जनता। पर यह निर्वाचनी परिवर्तन कितना बेमतलब है, कोलकाता मेडिकल कालेज के वाकये ने साफ साफ बता दिया। कुछ अरसा पहले बांकुड़ा में नीची जातियों की महिलाओं का पकाया मिड डे मिल खाने से सवर्ण बच्चों के इनकार के बाद विमान बोस ने हस्तक्षेप किया था। इसबार वे क्या करते हैं. यह देखना बाकी है।

आरोप है कि कोलकाता मेडिकल कालेज में अस्पृश्य और नीची जातियों के छात्रो के साथ सिर्फ छुआछूत चाल है, बल्कि ऐसे छात्रों को शारीरिक मानसिक तौ पर उत्पीड़ित भी किया जाता है। जब खास कोलकाते में ऐसा हो रहा है तो अन्यत्र क्या होगा। मालूम हो कि आरक्षण विरोधी आंदोलन भी माकपाई शासन में बाकी देश से कतई कमजोर नहीं रहा। यहां मेडिकल, इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट स्कूलों में आरक्षण विवाद की वजह से पहले से नीची जातियों के छात्रों पर सवर्ण छात्रों की नाराजगी चरम पर है। जब नयी नियुक्तिया बंद हैं। निजीकरण और विनिवेश जोरों पर है तो आरक्षण से किसको क्या फायदा या नुकसान हो सकता है। पर चूंकि मूलनिवाियों को कहीं भी किसी भी स्तर पर कोई मौका नहीं देना है, इसलिए आरक्षण विरोध के नाम पर खुल्लमखुल्ला अस्पृश्यता जारी है। मेधा सवर्णों में होती है , यह तथ्य तो माध्यमिक परीक्षा परिणामों से साफ हो ही गया है। मौका मिलने पर मूलनिवासी किसी से कम नही हैं। पर ब्राह्मणराज उन्हें किसी किस्म का मौका देना तो दूर, उनके सफाये के लिए विकास के बहाने नरमेध यज्ञ का आयोजन कर रखा है।

बांग्लादेश गणतन्त्र (बांग्ला: গণপ্রজাতন্ত্রী বাংলাদেশ गॉणोप्रोजातोन्त्री बाङ्लादेश्) दक्षिण जंबूद्वीप का एक राष्ट्र है। देश की उत्तर, पूर्व और पश्चिम सीमाएँ भारत और दक्षिणपूर्व सीमा म्यान्मार देशों से मिलती है; दक्षिण में बंगाल की खाड़ी है। बांग्लादेश और भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल एक बांग्लाभाषी अंचल, बंगाल हैं, जिसका ऐतिहासिक नाम "বঙ্গ" बॉङ्गो या "বাংলা" बांग्ला है। इसकी सीमारेखा उस समय निर्धारित हुई जब 1947 में भारत के विभाजन के समय इसे पूर्वी पाकिस्तान के नाम से पाकिस्तान का पूर्वी भाग घोषित किया गया। पूर्व और पश्चिम पाकिस्तान के मध्य लगभग 1600 किमी (1000 माइल) की भौगोलिक दूरी थी। पाकिस्तान के दोनो भागों की जनता का धर्म (इस्लाम) एक था, पर उनके बीच जाति और भाषागत काफ़ी दूरियाँ थीं। पश्चिम पाकिस्तान की तत्कालीन सरकार के अन्याय के विरुद्ध 1971 में भारत के सहयोग से एक रक्तरंजित युद्ध के बाद स्वाधीन राष्ट्र बांग्लादेश का उदभव हुआ। स्वाधीनता के बाद बांग्लादेश के कुछ प्रारंभिक वर्ष राजनैतिक अस्थिरता से परिपूर्ण थे, देश मे 13 राष्ट्रशासक बदले गए और 4 सैन्य बगावतें हुई। विश्व के सबसे जनबहुल देशों में बांग्लादेश का स्थान आठवां है। किन्तु क्षेत्रफल की दृष्टि से बांग्लादेश विश्व में 93वाँ है। फलस्वरूप बांग्लादेश विश्व की सबसे घनी आबादी वाले देशों में से एक है। मुसलमान- सघन जनसंख्या वाले देशों में बांग्लादेश का स्थान 4था है, जबकि बांग्लादेश के मुसलमानों की संख्या भारत के अल्पसंख्यक मुसलमानों की संख्या से कम है। गंगा-ब्रह्मपुत्र के मुहाने पर स्थित यह देश, प्रतिवर्ष मौसमी उत्पात का शिकार होता है, और चक्रवात भी बहुत सामान्य हैं। बांग्लादेश दक्षिण एशियाई आंचलिक सहयोग संस्था, सार्क और बिम्सटेक का प्रतिष्ठित सदस्य है। यहओआइसी और डी-8 का भी सदस्य है।

बांग्लादेश में सभ्यता का इतिहास काफी पुराना रहा है. आज के भारत का अंधिकांश पूर्वी क्षेत्र कभी बंगाल के नाम से जाना जाता था. बौद्ध ग्रंथो के अनुसार इस क्षेत्र में आधुनिक सभ्यता की शुरुआत ७०० इसवी इसा पू. में आरंभ हुआ माना जाता है. यहाँ की प्रारंभिक सभ्यता पर बौद्ध और हिन्दू धर्म का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है. उत्तरी बांग्लादेश में स्थापत्य के ऐसे हजारों अवशेष अभी भी मौज़ूद हैं जिन्हें मंदिर या मठ कहा जा सकता है.

बंगाल का इस्लामीकरण मुगल साम्राज्य के व्यापारियों द्वारा १३ वीं शताब्दी में शुरु हुआ और १६ वीं शताब्दी तक बंगाल एशिया के प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र के रुप में उभरा. युरोप के व्यापारियों का आगमन इस क्षेत्र में १५ वीं शताब्दी में हुआ और अंततः १६वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उनका प्रभाव बढना शुरु हुआ. १८ वीं शताब्दी आते आते इस क्षेत्र का नियंत्रण पूरी तरह उनके हाथों में गया जो धीरे धीरे पूरे भारत में फैल गया. जब स्वाधीनता आंदोलन के फलस्वरुप १९४७ में भारत स्वतंत्र हुआ तब राजनैतिक कारणों से भारत को हिन्दू बहुल भारत और मुस्लिम बहुल पािकस्तान में विभाजित करना पड़ा.

भारत का विभाजन होने के फलस्वरुप बंगाल भी दो हिस्सों में बँट गया. इसका हिन्दु बहुल इलाका भारत के साथ रहा और पश्चिम बंगाल के नाम से जाना गया तथा मुस्लिम बहुल इलाका पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बना जो पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना गया. जमींदारी प्रथा ने इस क्षेत्र को बुरी तरह झकझोर रखा था जिसके खिलाफ १९५० में एक बड़ा आंदोलन शुरु हुआ और १९५२ के बांग्ला भाषा आंदोलन के साथ जुड़कर यह बांग्लादेशी गणतंत्र की दिशा में एक बड़ा आंदोलन बन गया. इस आंदोलन के फलस्वरुप बांग्ला भाषियों को उनका भाषाई अधिकार मिला. १९५५ में पाकिस्तान सरकार ने पूर्वी बंगाल का नाम बदलकर पूर्वी पाकिस्तान कर दिया. पाकिस्तान द्वारा पूर्वी पाकिस्तान की उपेक्षा और दमन की शुरुआत यहीं से हो गई. और तनाव स्त्तर का दशक आते आते अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया. पाकिस्तानी शासक याहया खाँ द्वारा लोकप्रिय अवामी लीग और उनके नेताओं को प्रताड़ित किया जाने लगा. जिसके फलस्वरुप बंगबंधु शेख मुजीवु्ररहमान की अगुआई में बांग्लादेशा का स्वाधीनता आंदोलन शुरु हुआ. बांग्लादेश में खून की नदियाँ बही. लाखों बंगाली मारे गये तथा १९७१ के खूनी संघर्ष में दस लाख से ज्यादा बांग्लादेशी शरणार्थी को पड़ोसी देश भारत में शरण लेनी पड़ी. भारत इस समस्या से जूझने में उस समय काफी परेशानियों का सामना कर रहा था और भारत को बांग्लादेशियों के अनुरोध पर इस सम्स्या में हस्तक्षेप करना पड़ा जिसके फलस्वरुप १९७१ का भारत पाकिस्तान युद्ध शुरु हुआ. बांग्लादेश में मुक्ति वाहिनी सेना का गठन हुआ जिसके ज्यादातर सदस्य बांग्लादेश का बौद्धिक वर्ग और छात्र समुदाय था, इन्होंने भारतीय सेना की मदद गुप्तचर सूचनायें देकर तथा गुरिल्ला युद्ध पद्ध्ति से की. पाकिस्तानी सेना ने अंतत: १६ दिसंबर १९७१ को भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. लगभग ९३००० युद्ध बंदी बनाये गये जिन्हें भारत में विभिन्न कैम्पों मे रखा गया ताकि वे बांग्लादेशी क्रोध के शिकार बनें. बांग्लादेश एक आज़ाद मुल्क बना और मुजीबुर्र रहमान इसके प्रथम प्रधानमंत्री बने.


कोलकाता मेडिकल कालेज के मेन हास्टल के पहले और दूसरे वर्ष के सत्रह छात्रों ने डीन प्रवीर कुमार दासगुप्त और सुपर ्नूप राय को अस्पृश्यता की लिखित शिकायत की है।