October 21, 2012

'DASHAIN' OR 'DURGOTSAV' : A FESTIVAL OF BENGALI NATIONALISM

[Since some two decades or so, an antagonism persists in Nepal over Dashain, the national festival of the country, between two groups of people - one that favours and the other who vigorously opposes it. Posted below is an article by a Bengali writer who says Bengali Brahmans made 'Durgotsav' or 'Dashain'  the greatest or 'national' festival of Bengal also. In some parts of India Dashain is celebrated also as 'Dasara' or 'Dashera' or, 'Dussera' or 'Dussehra' - a derivative of Sanskrit Dasha-hara which literally means "bad omen remover". The people of Mysore in Karnataka, one of the south Indian states elaborately celebrate 'Dasara' which is locally known as Jumboo Savari. The tradition began 400 years ago. Likewise since past 100 years, another city of Madikeri in Karnataka has also been celebrating Dasara with different elaborate programmes. In Nepal, Dashain is observed much vigorously than in any other parts of the world. - The Blogger].

असुरोंके वंशज ही अपने पूर्वजोंके नरसंहारका उत्सवमें निष्णात!
भारत के राष्ट्रपति हिंदू हैं और कुलीन ब्राह्मण। उनेक राष्ट्रपति बननेपर बांग्ला मीडियाने इस पर बहुत जोर दिया। क्यों?राष्ट्रपतिके हिंदुत्वपर दुनियाभरका मीडिया फोकस कर रहा है। अखबर नहीं निकल रहे हैं तो क्या, संवाददाताओं और कैमरामैन प्रणव​ ​मुख्रजीकी पूजा कवर करनेके लिए तैनात हैं। क्या यही धर्म निरपेक्ष भारतकी सही छवि है?मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडलके तमाम सहयोगी पूजा उद्घाटन में व्यस्त हैं।मंत्री, सांसद, विधायक पूजा कमिटियोंके कर्ता धर्ता हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है।


- लेखक पलाश विश्वास
उत्तरी बंगालमें आज भी असुरोंके उत्तराधिकारी हैं। जो दुर्गोत्सवके दौरान अशौच पालन करते हैं। उनकी मौजूदगी साबित करती है कि महिषमर्दिनी दुर्गाका मिथक बहुत पुरातन नहीं है। राम कथामें दुर्गाके अकाल बोधनकी चर्चा जरूर है, पर वहां वे महिषासुरका वध करती नजर नहीं ​​आतीं। जिस तरह सम्राट बृहद्रथकी हत्याके बाद पुष्यमित्रके राज कालमें तमाम महाकाव्य और स्मृतियोंकी रचनी हुई प्रतिक्रांति की जमीन तैयार करनेके लिए। और जिस तरह इसे हजारों साल पुराने इतिहासकी मान्यता दी गयी, कोई शक नहीं कि अनार्य प्रभाव वाले आर्यावर्तकी सीमाओंसे बाहरके तमाम शासकोंके हिंदूकरणकी प्रक्रियाको ही महिषासुरमर्दिनीका मिथक छीक उसी तरह बनाया गया , जैसे शक्तिपीठोंके जरिये सभी लोकदेवियोंको सतीके अंश और सभी लोक देवताओं को भैरव बना दिया गया। वैसे भी बंगालका नामकरण बंगासुरके नाम पर हुआ। ​​बंगालमें दुर्गापूजाका प्रचलन सेन वंशके दौरान भी नहीं था। भारत माताके प्रतीककी तरह अनार्य भारत के आर्यकरणका यह मिथक ​​निःसंदेह तेरहवीं सदीके बाद ही रचा गया होगा। जिसे बंगालके सत्तावर्गके लोगोंने बांगाली ब्राहमण राष्ट्रीयताका प्रतीक बना दिया।​​विडंबना है कि बंगालकी गैरब्राह्मण अनार्य मूलके या फिर बौद्ध मूलके बहुसंख्यक लोगोंने अपने पूर्वजोंके नरसंहारको अपना धर्म मान ​​लिया। बुद्धमतमें कोई ईश्वर नहीं है, बाकी धर्ममतोंकी तरह। बौद्ध विरासत वाले बंगालमें ईश्वर और अवतारोंकी पांत अंग्रेजी हुकूमतके ​​दौरान बनी, जो विभाजनके बाद जनसंख्या स्थानांतरणके बहाने अछूतोंके बंगालसे निर्वासनके जरिये हुए ब्राह्मण वर्चस्वको सुनिश्चित​ ​ करने वाले जनसंख्या समायोजन के जरिये सत्तावर्गके द्वारा लगातार मजबूतकी जाती रहीं। माननीय दीदी इस मामलेमें वामपंथियोंके चरण चिन्ह पर ही चल रही हैं।

Image Credit: Around the World
 
भारतके राष्ट्रपति हिंदू हैं और कुलीन ब्राह्मण। उनेक राष्ट्रपति बनने पर बांग्ला मीडियाने इस पर बहुत जोर दिया। क्यों? राष्ट्रपतिके हिंदुत्वपर दुनियाभरका मीडिया फोकस कर रहा है। अखबर नहीं निकल रहे हैं तो क्या, संवाददाताओं और कैमरामैन प्रणव​ ​मुख्रजीकी पूजा कवर करनेके लिए तैनात हैं। क्या यही धर्म निरपेक्ष भारतकी सही छवि है? मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडलके तमाम सहयोगी पूजा उद्घाटनमें व्यस्त हैं।मंत्री, सांसद, विधायक पूजा कमिटियों के कर्ता धर्ता हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है।

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी हर सालकी तरह इस साल भी नवरात्रिके मौके पर पश्चिम बंगालके बीरभूमि जिले के मिरीती गांवमें मौजूद अपने पैतृक निवास जा रहे हैं। बीरभूमिके जिलाधिकारीने जानकारी दी है कि मुखर्जी शनिवारको दोपह में कोलकातासे240 किलोमीटरकी दूरी पर मौजूद अपने गांव हेलीकॉप्टरसे पहुंचेंगे। तय कार्यक्रमके मुताबिक राष्ट्रपति 23अक्टूबर तक अपने पैतृक गांव में रहेंगे। मुखर्जी अपने गांवमें दुर्गापूजामें बतौर मुख्य पुजारी शामिल होंगे। प्रणबके करीबी लोग अंदाजा लगा रहे हैं कि शायद प्रणब खुद प्रोटोकॉल तोड़कर गांव वालोंके बीच घुलेंगे मिलेंगे और पूजा करेंगे। प्रणब पश्चिम बंगालके हैं और वहां दुर्गापूजाका अलग ही महत् है। बंगालकी जया भादुड़ी बच्चन भी हैं और वह भी मुंबईमें बंगाली अंदाजमें ही दुर्गापूजा मनाती हैं। लेकिन इस बार वह ऐसा नहीं कर पाएंगी।
तनिक इस पर भी गौर करें!
गम्यताम् अत्र : पर्यटनम्, अन्वेषणम्. महिषमर्दिनी (बक्रेश्वरम्) एतत् पीठं भारतस्य पश्चिमबङ्गालस्य बदहाममण्डले विद्यमानेषु शक्तिपीठेषु अन्यतमम्

दुर्गा पार्वतीका दूसरा नाम है। हिन्दुओंके शाक्त साम्प्रदायमें भगवती दुर्गाको ही दुनियाकी पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है (शाक्त साम्प्रदाय ईश्वरको देवीके रूपमें मानता है) वेदोंमें तो दुर्गाका कोई ज़िक्र नहीं है, मगर उपनिषदमें देवी"उमा हैमवती" (उमा, हिमालयकी पुत्री) का वर्णन है पुराणमें दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है दुर्गा असल में शिवकी पत्नी पार्वतीका एक रूप हैं, जिसकी उत्पत्ति राक्षसोंका नाश करनेके लिये देवताओं की प्रार्थना पर पार्वती ने लिया था --इस तरह दुर्गा युद्धकी देवी हैं देवी दुर्गाके स्वयं कई रूप हैं मुख्य रूप उनका"गौरी"है, अर्थात शान्तमय, सुन्दर और गोरा रूप उनका सबसे भयानक रूप काली है, अर्थात काला रूप विभिन्न रूपोंमें दुर्गा भारत और नेपालके कई मन्दिरों और तीर्थस्थानोंमें पूजी जाती हैं कुछ दुर्गा मन्दिरोंमें पशुबलि भी चढ़ती है भगवती दुर्गाकी सवारी शेर है 'उग्रचण्डी' दुर्गाका एक नाम है। दक्षने अपने यज्ञमें सभी देवताओंको बलि दी, लेकिन शिव और सतीको बलि नहीं दी। इससे क्रुद्ध होकर, अपमानका प्रतिकार करनेके लिए इन्होंने उग्रचंडीके रूप में अपने पिताके यज्ञका विध्वंस किया था। इनके हाथोंकी संख्या १८ मानी जाती है। आश्विन महीनेमें कृष्णपक्षकी नवमी दिन शाक्तमतावलंबी विशेष रूपसे उग्रचंडीकी पूजा करते हैं।

बाजारविरोधी दीदीके मां माटी मानुष राजमें बाजार बमबम है और चहुं दिशाओं में धर्मध्वजा लहरा रहे हैं। नवजागरणके समयसे बंगालमें विज्ञान और प्रगतिकी चर्चा जारी है। नवजागरणके मसीहा जमींदारवर्गसे थे या फिर अंग्रेजी हुकूमतके खासमखास ।ज्ञान तब भी कुलीन तबकेसे बाहरके लोगोंके लिए वर्जित था। औद्योगिक क्रांति और पाश्चात्य शिक्षाके असरमें विज्ञान और प्रगतिका दायरा भी इसी वर्ग तक ​​सीमित रहा। जैसा कि पूंजी और एकाधिकारवादी वर्चस्वके लिए विज्ञान और वैज्ञानिक आविष्कार अनिवार्य है ताकि उत्पादन प्रणालीमें श्रम और श्रमिककी भूमिका सीमाबद्ध या अंततः समाप्त कर दी जाये। पर पूंजी और बाजारके लिए ज्ञान और विज्ञान को भी सत्तावर्ग तक सीमित करना वर्गीय हितों के मद्देनजर अहम है।ईश्वर, धर्म और आध्यात्मिकता कार्य परिणाम के तर्क और स्वतंत्र चिंतनका निषेध करती हैं, जिससे विरोध, प्रतिरोध या बदलावकी तमाम संभावना शून्य हो जाती है। जर्मनीसे अमेरिका गये आइन स्टीन को भी धर्मसभामें जाकर यहूदी और ईसाई, दोनों किस्मके सत्तवर्गके मुताबिक धर्म और विज्ञानके अंतर्संबंधकी व्याख्या करते हुए वैज्ञानिक शोध, आविष्कार और ज्ञानके लिए अवैज्ञानिक, ​​अलौकिक प्रेरणाकी बात कहनी पड़ी। बंगाल में ३५ सालके प्रगतिवादी वामपंथी शासन दरअसल बहुजनों, निनानब्वे फीसद जनताके बहिष्कारके सिद्धांतके मुताबिक ही जारी रहा। साम्यवादकी वैश्विक दृष्टि बंगाली ब्राह्मणवादके माफिक बदल दी जाती रही। वाममोर्चाकी सरकार​ ​ब्राह्मणमोर्चा बनकर रह गयी। जो दुर्गोत्सव सामंतों और जमीदारोंकी कुलदेवियोंकी उपासना तक सीमाबद्ध था, प्रजाजनों पर अपने उत्कर्ष साबित करनेका, वह सामंतोंके अवसान और स्वदेशी आंदोलनके जरिये सार्वजनिक ही नहीं हो गया, क्रमशः बंगीय और भारतीय हिंदू राष्ट्रवादका प्रतीक बन गया। वाम शासनने इसपर सांस्कृतिक मुलम्मा चढ़ाते हुए बंकिमकी भारत माता और वंदेमातरमके हिंदुत्वका स्थानापन्न बना दिया। ममता राजमें इसी बंगीय वर्चस्ववादी परंपराकी उत्कट अभिव्यक्ति देखी जा रही है, जब दुर्गोत्सवके दरम्यान लगातार दस दिनों तक सरकारी दफ्तरबंद रहेंगे। सूचना कर्फ्यूके तहत चार दिनोंके लिए कोई अखबार नहीं छपेगा और टीवी पर चौबीसों घंटा पूजाके बहाने बाजारका जयगान!

इतिहासकी चर्चा करने वालों को बखूब मालूम होगा कि वैदीकी सभ्यताका बंगालमें कोई असर नहीं रहा है और यहां वर्ण व्यवस्थाका ​​वजूद रहा है। ग्यरहवीं सदीतक बंगालमें बुद्धयुग रहा। सातवीं शताब्दीमें गौड़ के राजा शशांक शाक्त थे। शाक्त और शैव दो मत प्राचीन बंगालमें प्रचलित थे, जो लोकधर्मके पर्याय हैं, और जिनका बादमें हिंदुत्वकरण है।डिसकवरी आफ इंडियामें नेहरूने भी वर्ण व्यवस्थाको आर्योंकी अहिंसक रक्तहीन क्रांति माना और तमाम इतिहासकार इसके जरिये भारतके एकीकरणकी बात करते हैं। वामपंथी नेता कामरेड​ ​नंबूदरीपाद वर्ण व्यवस्थाको आर्य सभ्यताकी महान देन बताते थे। बंगालमें पाल वंशके पतनके बाद कन्नौजके ब्राह्मणोंको बुलाकर सेनवंशके कर्नाटकी मूलके राजा बल्लाल सेनने ब्राह्ममी कर्मकांड और पद्धतियां लागू कीं। पर उनका शासलकाल खत्म होते होते उनके पुत्र​ ​लक्ष्मण सेनने पठानोंके आगे खुदको पराजित मानते हुए गौड़ छोड़कर भाग निकले। तो इस हिसाबसे ब्राह्मणी तंत्र लागू करनेके लिए बल्लालसेनके कार्यकालके अलावा बाकी कुछ नहीं बचता। पठानों और मुगलों के शासनकालमें ब्राह्मण सत्ता वर्गमें शामिल होनेकी कवावद जरूर ​​करते रहे। बंगालमें जो धर्मांतरण हुआ, जाहिर है , वह बौद्ध जन समुदायोंका ही जो हिंदू हुए वे सीधे अछूत बना दिये गये, सेन वंशके​ ​दौरान। मुसलमान शासनकालमें इन अछूतोंने और जो बौद्ध हिंदुत्वको अपनाकर अछूत बननेको तैयार थे, उन्होंने व्यापक पैमानेपर इस्लामको कबूल कर लिया। हिंदू कर्मकांडके अधिष्ठाता विष्मुका तो मुसलमानोंके आनेसे पहले नामोनिशान था। इस्लामी शासनकालमें पांच​ ​सौ साल पहले चैतन्य महाप्रभुके जरिए वैष्णव मतका प्रचलन हुआ और उनके खास अनुयायी नित्यानंदने बंगालकी गैर हिंदू जनता​ ​का वैष्णवीकरण किया। बंगाल ही नही, उत्तरप्रदेश, बिहार और पंजाबको छोड़कर बाकी भारत में तेरहवीं सदीसे पहले वैदिकी सभ्यताका कोई खास असर नहीं था। वि्ध्य और अरावलीके पार स्थानीय आदिवासी शासकोंका क्षत्रियकरणके जरिए हिंदुत्वका परचम लहराया गया। लेकिन पूर्व और मध्य भारतमें सत्रहवीं सदी तक अनार्य या फिर अछूत या पिछड़े शासकोंका राज है। इसी अवधिको तम युग कहते हैं, जब महाराष्ट्रके जाधव शासकों और बंगालके पाल राजाओं तक मैत्री संबंध थे, जब चर्या पदके जरिये भारतीय भाषाएं आकार ले रही थी।

आलोकसज्जाकी आड़में अंधकारके इस उत्सवमें हम भी चार दिनों तक खामोश रहनेको विवश हैं। घरका कम्प्यूटर खराब है और इन ​​चार दिनोंमें बाहर जाकर काम करनेके रास्ते बंद हैं। कहीं कुछ भी हो जाये, हम अपना मतामत दर्ज नहीं कर सकते। वैसे भी बंगालमें ​​मीडियाको बाकी देश की सूचना देने की आदत नहीं है। नीति निर्धारणकी किसी प्रक्रियाके बारे में पाठकों को अवगत कराने की जवाबदेही ​​नहीं है। अर्थ व्यवस्थाके खेलको बेनकाब करनेके बजाय आर्थिक सुधारोंके अंध समर्थन अंध राष्ट्रवादके मार्फत करते रहनेकी अनवरत निरंतरता है।पार्टीबद्ध प्रतिबद्धताके साथ। अखबार छपें , छपें, इससे शायद कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। कमसे कम चार दिनों तक बलात्कार,​ ​ अपराध और राजनीतिक हिंसाकी खबरों से निजात जरूर मिल जायेगी। दीदी खुद इल कबरोंसे परेशान हैं और जब तब मीडियाको ​​नसीहत देते हुए दमकाती रहती हैं। उनका बस चले तो सरकार की आलोचनाके तमाम उत्स ही खत्म कर दिये जायें।

मजे की बात है कि​ ​अखबारोंके दफ्तरोंमें अवकाश नहीं होगा। पर संस्करण नहीं निकलेगा। पत्रकारं गैरपत्रकारोंको आकस्मिक, अस्वस्थता या फिर अर्जित अवकाश लेकर सेवाकी निरतंतरता बनाये रखनी होगी। प्रबंधनके मुताबिक वे अखबार बंद नहीं कर रहे हैं , बल्कि हाकरों ने अखबार उठाने से मना कर ​​दिया है।जाहिर है कि इस पर ज्यादा बहसकरने की गुंजाइश नहीं है कि अचानक हाकर दुर्गोत्सवके दौरान अखबार उठानेसे मना क्यों कर​ ​ रहे हैं और उनके पीछे कौल सी राजनीति है। पत्रकारों और गैरपत्रकारोंके लिए वेतन बोर्डकी सिफारिशें लागू करनेके लिए दीदी दिल्लीमें आवाज बुलंद करनेसे पीछे नहीं हटतीं। पर राज्यमें बाहैसियत मुख्यमंत्री मीडिया कर्मचारियोंके हितमें उन्होंने कोई कदम उठाया हो या वेतनमान लागू करनेके लिए अखबार मालिकोंसे कहा हो, ऐसा हमें नहीं मालूम है। जबकि अनेक अखबारोंके कर्णधार उनके खासमखास हैं और कई संपादक​ ​ मालिक तो उनके सांसद भी हैं।कमसे कम उन मीडिया हाउसमें कर्मचरियोंके लिए हालात बेहतर बनानेमें उन्हें कोई रोक नहीं सकता।