[पृथ्वी नारायण शाह नामक राजा ने तब ‘हिन्दूवाद’ के धार्मिक भावना के आधार पर नेपाल के एकीकरण का सिलसिला शुरू किया था जो 1860 तक सत्ता में परिवर्तन के साथ भी जारी रहा.पृथ्वी नारायण शाह के बाद 1846 में सत्ता हथियाने वाले जंग बहादुर राणा हिंदूवादी व्यवस्था लागू करने में कई कदम और आगे निकल गए. 1854 में जंग बहादुर राणा यूरोप के दौरे पर गए और वापस आने के बाद नेपाल में ‘मुल्की आइन’ नाम से कोड ऑफ़ कंडक्ट लागू किया. इस कानून के माध्यम से जाति व्यवस्था को शासकीय मान्यता दे दी गयी. इसमें जाति व्यवस्था को कठोर बनाते हुए विभिन्न जातियों के कर्तव्य व अधिकार निर्दिष्ट किये गए. काफी हद तक भारत की उस वर्ण/जाति-व्यवस्था की तरह जो सदियों से शक्ति के स्रोतों-आर्थिक,राजनीतिक और धार्मिक- के बंटवारे की व्यवस्था रही.मुल्की आइन के फलस्वरूप भारत के सवर्णों की भांति जहां नेपाल के ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसी कुछ खास जातियों का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार स्थापित हुआ,वहीँ दलित,आदिवासी,पिछड़े और धार्मिक अल्पसंख्यक अशक्त व गुलामों जैसी जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हुए. ]
लेखक एच.एल.दुसाध
‘नेपाल फिर बनेगा
हिन्दू राष्ट्र-की खबर अख़बारों में पढ़ कर धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्यायवादी बुद्धिजीवी
सकते में हैं. ऐसा इसलिए कि नेपाल में बनने जा रहे संविधान के मसौदे में
में ‘धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र’ का जिक्र हुआ है. बहरहाल अख़बारों के
अनुसार नेपाल अपनी पुरानी पहचान को कायम करते
हुए फिर से हिन्दू राष्ट्र बनेगा. वहां की राजनीतिक पार्टियों
ने लाखों लोगों की प्रतिक्रिया लेने के बाद नए संविधान से ‘धर्मनिरपेक्ष’शब्द हटाने का निर्णय ले लिया है. संविधान सभा के मुताबिक अधिकांश लोग धर्मनिरपेक्ष की जगह ‘हिन्दू’ तथा ‘धार्मिक आजादी’ शब्द इस्तेमाल
करवाना चाहते हैं. माओवादी नेता पुष्प
कमल दहाल उर्फ़ प्रचंड ने कहा है – ‘संविधान में धर्मनिरपेक्ष
शब्द फिट नहीं बैठता. इस शब्द ने लोगों को
परेशान किया है. इसने लाखों लोगों की
भावना को आहत किया है. हमें लोगों के फैसले
का आदर करना चाहिए.’ वहीँ, नेपाली कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल-यूनिफाइड मर्किसिस्ट
लेनिनिस्ट और मधेशी पार्टियों ने भी संविधान से धर्मनिरपेक्ष शब्द हटाने पर रजामंदी
ज़ाहिर की है.
काबिले गौर
है कि नेपाल में राजशाही का खात्मा करनेवाली
नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल- माओवादी के दबाव में 2007 में नेपाल को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया
था. इस फैसले ने नेपाल के सदियों पुराने हिन्दू साम्राज्य होने की
पहचान को समाप्त किया था. किन्तु जिन कम्युनिस्ट
दलों ने दवाब डालकर इसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र
घोषित करवाया था, आज वे ही धर्मनिरपेक्ष शब्द को हटाने के समर्थन
में आ खड़े हुए हैं तो उसका कारण यह है कि हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग को लेकर देश
में जगह-जगह उग्र प्रदर्शन हो रहे हैं . इस मांग को लेकर पूरे देश में अभियान चल रहा
है .इसकी अगुआई राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के नेतृत्व में कमल थापा कर रहे हैं. सूत्रों के मुताबिक प्रदर्शनकारियों को परोक्ष समर्थन सीपीएन
– यूएमएल और नेपाली कांग्रेस जैसे दल कर रहे हैं जो हमेशा से ही
देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित करने के खिलाफ रहे. जानकारों के मुताबिक इस खेल में भारत के आरएसएस के आनुषांगिक संगठनों की भी प्रभावी
भूमिका है. बहरहाल जिन धर्मनिरपेक्षता – विरोधी दलों के प्रत्यक्ष व परोक्ष उकसावे में आकर निरीह जनता हिन्दू राष्ट्र की
मांग कर रही है, उसकी भावना का सम्मान करते हुए कैसे वामपंथियों
ने धर्मनिरपेक्षता से मुंह मोड़ लिया, यह सवाल किसी
भी प्रगतिशील व्यक्ति को परेशान कर सर सकता है. इसके कारणों की तफ्तीश के लिए एक बार ‘हिन्दू राष्ट्र’पाल के इतिहास का सिंहावलोकन कर लेना होगा.
इस विषय में
पत्रकार अनिल चमड़िया की शोध पुस्तिका ‘नेपाल:हिन्दू
राष्ट्र होने की त्रासदी’ काफी महत्वपूर्ण सूचनाएं
सुलभ कराती है. यह बतलाती है कि आज
का हिन्दू राष्ट्र नेपाल 1768 के पूर्व कई छोटे-छोटे
राज्यों में बंटा हुआ था. पृथ्वी नारायण शाह नामक राजा ने तब ‘हिन्दूवाद’
के धार्मिक भावना के आधार पर नेपाल के एकीकरण का सिलसिला शुरू
किया था जो 1860 तक सत्ता में परिवर्तन के साथ भी जारी रहा.पृथ्वी
नारायण शाह के बाद 1846 में सत्ता हथियाने
वाले जंग बहादुर राणा हिंदूवादी व्यवस्था लागू
करने में कई कदम और आगे निकल गए. 1854 में जंग बहादुर राणा यूरोप के दौरे पर गए और वापस आने के बाद नेपाल में ‘मुल्की आइन’ नाम से कोड ऑफ़ कंडक्ट
लागू किया. इस कानून के माध्यम से जाति व्यवस्था को शासकीय मान्यता दे दी गयी. इसमें
जाति व्यवस्था को कठोर बनाते हुए विभिन्न जातियों के कर्तव्य व अधिकार निर्दिष्ट किये
गए. काफी हद तक भारत की उस वर्ण/जाति-व्यवस्था की तरह जो सदियों
से शक्ति के स्रोतों-आर्थिक,राजनीतिक और धार्मिक-
के बंटवारे की व्यवस्था रही.मुल्की आइन के फलस्वरूप भारत के सवर्णों की भांति जहां नेपाल के ब्राह्मण,क्षत्रिय जैसी कुछ खास जातियों का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार स्थापित हुआ,वहीँ दलित,आदिवासी,पिछड़े और धार्मिक अल्पसंख्यक अशक्त व गुलामों जैसी जिंदगी जीने
के लिए अभिशप्त हुए. मुल्की आइन के फलस्वरूप जब ब्राह्मण-क्षत्रियों का प्रभुत्व पूरी
तरह स्थापित हो गया,तब इसके विरोध में विभिन्न जन-जातियों में
विरोध की सुगबुगाहट हुई,जिसे संगीनों के बल
पर दबा दिया गया.इस बीच नेपाल को हिन्दू राष्ट्र और राजा को हिन्दू धर्म का पर्याय
बनाने का बलिष्ठ प्रयास होता रहा. शासकों ने अपनी सत्ता
बनाये रखने के लिए हिन्दू धर्म के इस्तेमाल में दो तरीके अपनाये. पहला तो यह कि इसे प्राकृतिक तौर पर हिन्दू राष्ट्र बताया गया
और दूसरे यह व्यवस्था दी गयी कि यहाँ का हर निवासी हिन्दू है. धर्म परिवर्तन पर कठोरता पूर्वक निषेध जारी कर दिया गया. यह निषेध इसलिए किया गया ताकि इसके जरिये इसके हिन्दू राष्ट्र
होने का तर्क दिया जा सके. दूसरा यह कि अच्छी
– खासी तादाद में मौजूद बौद्ध धर्मावलम्बियों को यह समझाया जाता
रहा कि उनका धर्म हिन्दू धर्म की एक शाखा है. इसके पीछे एक गहरी साजिश छिपी थी. इससे बौद्ध धर्म के भीतर घुसपैठ करने और अपने ढंग से संस्कृति थोपने में बहुत आसानी
हुई. जबकि यह तथ्य है कि इसी नेपाल के लुंबिनी में गौतम बुद्ध का
जन्म हुआ था जिन्होंने वर्ण-धर्म आधारित हिन्दू धर्म के खिलाफ ऐतिहासिक संग्राम चलाया
था. राणा शासन नेपाल में 1950 तक यानि 104 वर्षों तक कायम रहा.इन वर्षों में नेपाल
भारत की तरह उपनिवेशिक नहीं रहा.
नेपाल में 1948 के पहले कोई लिखित संविधान नहीं था.राजा की मर्जी और इशारे
ही आदेश और कानून हुआ करते थे . 1948 में राणाशाही
के वंशज प्रधानमंत्री पद्म शमशेर राणा ने पहली
बार एक लिखित संविधान लागू करने की कोशिश की. यह कोई राणाशाही की सदिच्छा नहीं थी. बल्कि भारत में आजादी की चली बयार नेपाल में अच्छी तरह से चारो ओर फ़ैल रही थी और
राणाशाही को कुछ खतरे की आहट महसूस होने लगी
थी. ऐसे में खुद को लोकतान्त्रिक और नेपाल की हितैषी दिखाने के लिए
शमशेर राणा ने संविधान की लिखित व्यवस्था की. लेकिन असल में यह व्यवस्था भी वंशानुगत
शासन को मजबूत करने और अपनी पुरानी व्यवस्था को कानूनी रूप देने के इरादे से की गयी थी.बस,इसका रूप आधुनिक यानि लिखित था. लेकिन राणाशाही भी ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकी.1950 के अंत और 1951 के शुरू में शाह परिवार ने सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले ली.शाह परिवार के नए शासक बने राजा त्रिभुवन,जिनसे एक नए राजतंत्र की शुरुआत हुई. राजा त्रिभुवन को अपनी
सत्ता चलाने के लिए अपने रुख में थोड़ा बदलाव
लाना पड़ा.1951 में एक अन्तरिम सरकार गठन किया गया तथा एक नया संविधान बनाया गया.लेकिन इसमें सारी सत्ता राजा के अधीन थी और पुरानी व्यवस्था चलती रही.नेपाल
के आम नागरिकों को मात्र थोड़े से अधिकार दे दिए गए.राजा त्रिभुवन के बाद उनके नए वंशज
राजा महेंद्र को 1955 में राजगद्दी मिली.
राजा महेंद्र
के शासनकाल में 1959 में एक नया संविधान तैयार किया गया . इसी वर्ष नेपाल में आम चुनाव हुए और पहली
बार जनता द्वारा निर्वाचित ‘नेपाली कांग्रेस’की सरकार बी.पी.कोइराला के नेतृत्व में सत्तारूढ़ हुई.लेकिन राजा
महेंद्र इसे ज्यादा दिन सहन न कर सके.लिहाजा उन्होंने यह कहते हुए कोइराला सरकार को बर्खास्त कर दिया कि लोकतंत्र
के नाम पर देश को बर्बाद होते नहीं देख सकते और अब पुरानी परम्परा और इतिहास के साथ
नयी सच्ची लोकतंत्र वाली व्यवस्था लागू करेंगे. परिणामस्वरूप राजा महेंद्र ने नए संविधान
में पहली बार दर्ज किया-‘नेपाल एक हिन्दू अधिराज्य
है.’इसके पहले कभी भी लिखित तौर पर इस तरह की घोषणा की जरुरत नहीं
पड़ी.समझा ही जाता था कि नेपाल एक हिन्दू राष्ट्र है.राजा को अपनी निरंकुश सत्ता बनाये
रखने का सर्वोत्तम उपाय हिंन्दू राष्ट्र की घोषणा ही लगी. संविधान में यह व्यवस्था करने के पीछे सोच यह थी कि इससे न केवल पड़ोसी मुल्क भारत
की प्रतिक्रियावादी शक्तियों का समर्थन मिलेगा, बल्कि कई तरह की शक्तियों के दबाव बी .पी.कोइराला का समर्थन करने वाली शक्तियां
भी खामोश हो जायेंगी. इस तरह उन्होंने अपनी
निरंकुश सत्ता को बनाये रखने के लिए धर्म का जोरदार इस्तेमाल किया.उन्हें यह भी लगा
कि जिस तरह विभिन्न वंचित जातीय व धार्मिक समूह गोलबंद व वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ मुखर
हो रहे हैं,भविष्य में नेपाल को हिन्दू राष्ट्र के रूप में बनाये रखना कठिन होगा.इसकी काट के लिए उन्होंने
राजा को हिन्दू धर्म का पर्याय बनाने उपक्रम चलाया और लोगों के दिमाग में भरा कि नेपाल
का राजा हिन्दू देवताओं से भी बड़ा है.इस दुनिया में वही अकेला हिन्दू धर्म का रक्षक
रह गया है.अतः उसकी और उसकी गद्दी की रक्षा बेहद जरुरी है.
राजा महेंद्र
ने न केवल पुरानी चली आ रही सामाजिक-व्यवस्था को अटूट रखा बल्कि उसे कई स्तरों पर और मजबूत किया.स्वयं को धर्म का पर्याय बनाये रखने में राजा को
कामयाबी मिली.इससे निरंकुश सत्ता के खिलाफ खड़े आन्दोलनों में आम लोगों की भागीदारी
न हो सकी.राजा गोलियों और संगीनों के बलबूते आंदोलनों को दबाने में लगातार सफल होता
रहा.लोगों के बोलने और इक्कट्ठे होकर बातचीत
करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया.इस्लामिक राष्ट्र की भांति इकलौते हिन्दू राष्ट्र
में महिलाओं को शिक्षित होने से वंचित रखा गया.उधर भारत की हिन्दूवादी शक्तियां इस
निरंकुश राजा को अपना समर्थन देती रहीं.
1972 में राजा महेंद्र की मृत्यु के बाद इंग्लैण्ड,टोक्यो,अमेरिका इत्यादि में
पढाई किये राजा वीरेंद्र,जिनकी शादी उन्ही की
तरह मॉडर्न रानी ऐश्वर्य राजलक्ष्मी से हुई, को हिन्दू राष्ट्र की सत्ता सौंप दी गयी.राजा-रानी ने हिंदूवादी परम्पराओं को और
दृढतर करने के लिए घरों और दुकानों में बाध्यतामूलक रूप से अपनी तस्वीरें लगवायीं. यही नहीं ,पशुपतिनाथ के मंदिर
में भी राजा वीरेंद्र ने अपने सहित पूर्वजों की तस्वीरें लगवा दीं.उस मंदिर में पशुपतिनाथ के चौमुखी लिंगाकार तक जाने का अधिकार,
आमजन के लिए निषेध कर स्वयं तथा अपने आत्मीय-स्वजनों तक सिमित
रखा.धार्मिक भावनाओं की आड़ में हिन्दू राष्ट्र को अक्षत रखने व अपनी निरंकुश सत्ता
कायम रखने के लिए राजा सतत प्रयत्नशील रहा.धर्म के रक्षक राजा लोगों के भीतर बैठे धार्मिक
अंधविश्वासों और संस्कारों के कारण एक तरफ लूटा तो दूसरी तरफ पुजारियों ने मंदिरों
को कमाई और ऐय्यासी के अड्डे बना डाले.उधर
आमजन का जीवन बद से बदतर होता रहा.गरीबी से तंग आकर महिलाएं भारत के वेश्यालयों में पनाह लेने लगीं.बेरोजगारों की संख्या बढ़ने लगी
जिससे पहले से कहीं ज्यादा लोग रोजी-रोटी की तलाश में देश से बाहर जाने लगे.लेकिन
राजा और उसका परिवार सम्पन्न होता चला गया .राजा और राज परिवार के सदस्यों ने अपने
बड़े-बड़े व्यवसाय खड़े कर लिए.
राजा और पुजारियों
के बाद राजनीतिक पार्टियों ने भी धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करना शुरू किया.नेपाली
कांग्रेस के कृष्णा प्रसाद भट्टराई के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार को भावी निर्वाचित
सरकार के गठन के पूर्व एक नए संविधान को बनाने की जिम्मेवारी दी गई. इस संविधान में सबसे ज्यादा विवाद इस व्यवस्था का उल्लेख किये
जाने को लेकर हुआ कि नेपाल एक धर्मनिरपेक्ष राज्य रहेगा या फिर किसी तरह हिन्दू राष्ट्र ही बनाये रखा जाय. नेपाल को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किये जाने को लेकर वहां के विभिन्न अंचलों में आवाज उठी. राजधानी में प्रदर्शन हुए.विभिन्न जनजातियों ने और भाषाई समुदायों
ने हिन्दू राष्ट्र की व्यवस्था को खत्म किये जाने की मांग
की.कई लोगों का मानना रहा है कि नेपाल में हिन्दुओं का बहुमत नहीं है.इस सच्चाई को
जानते हुए कि नेपाल में हिन्दुओं का बहुमत नहीं है,सत्ता पर काबिज ब्राह्मण और क्षत्रियों ने कभी भी जातीय आधार पर जनगणना नहीं होने
दिया .बहरहाल विभिन्न जनजातीय और भाषाई समूहों की मांग के बावजूद हिंदूवादी शक्तियां
किसी भी तरह नेपाल को धर्मनिरपेक्ष की जगह हिन्दू राष्ट्र घोषित किये जाने पर आमादा
थीं. नेपाल में राजा यह व्यवस्था इसलिए बरक़रार रखना चाहता था ताकि
उसकी गद्दी और सत्ता सुरक्षित रहे. राजा वीरेंद्र को यह पता था कि हिन्दू राष्ट्र की व्यवस्था होने पर नेपाल का राजा
कोई हिन्दू ही हो सकता है.हिन्दू राष्ट्र होने
की स्थिति में उसका वंश इस पद का हकदार बना रहेगा. नेपाली कांग्रेस में इस बात को लेकर अंतर्विरोध था.लेकिन कम्युनिस्टों की ताकत
को बढ़ते देख नेपाली कांग्रेस ने भी हिन्दू राष्ट्र का समर्थन कर दिया.
संविधान में
हिन्दू राजतंत्रात्मक अधिराज्य की व्यवस्था तो कर दी गयी लेकिन इससे वहां जबरदस्त असंतोष उभरकर सामने
आया.लोकतंत्र में संगठित होने और संगठन बनने
के अधिकार का लाभ उठाते हुए बड़ी तेजी से विभिन्न जनजातियों के संगठन वजूद में आ गए
और अपना मोर्चा बनाने तथा नेपाल की विभिन्न सरकारी नौकरियों में,जहाँ ब्राहमण-क्षत्रियों का वर्चस्व है, आरक्षण की मांग उठाने लगे.यह नेपाल की उस वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध
जनजतियों का उभार था जिसके कारण ही वे विकास की दौड़ में पीछे रह गए.हिन्दू-धर्माधारित
व्यवस्था के विरुद्ध जनजातियों में पनपते आक्रोश का अनुमान लगा कर कम्युनिस्टो को उनके
बीच पैठ बनाने में सफलता मिलने लगी.बहरहाल 240 वर्ष पूर्व पृथ्वी नारायण शाह द्वारा स्थापित जिस धर्माधारित हिन्दू राष्ट्र में
दलित-आदिवासी-पिछड़े पिछले दो सौ सालों से अशक्त: बेरोजगार ‘गोरखा बहादुर’दूसरे देशों में झाड़ू-पोछा-दरवानी तथा महिलाएं वेश्यालयों में पनाह लेने के लिए
अभिशप्त हुईं,देर से ही सही अंततः उसके ध्वस्त होने की घड़ी आ गयी. नब्बे के दशक (1996-2006) में राजशाही और नेपाल में लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का सपना देखने वाले कम्युनिस्टों में चले लम्बे संघर्ष,जिसमें खून भी बहे और युवराज दीपेन्द्र तथा राजा वीरेंद्र की
प्राणहानि भी हुई,के बाद राजशाही को घुटने टेकने पड़े. माओवादियों के समक्ष राजशाही के घुटने टेकने बाद 28 मई, 2008 को नेपाल की राजशाही
व्यवस्था का पूरी तरह खात्मा कर,वहां गणतांत्रिक व्यवस्था
लागू कर दी गयी . अब वहां लोकतंत्र को सुचारू
रूप से परिचालित किये जाने के लिए एक स्थाई संविधान निर्माण की प्रक्रिया कुछ ही दिनों
में पूरी होने वाली है.इस संविधान के मसौदा समिति की जो रिपोर्ट लगभग महीने भर पहले
आई ,उसमें नेपाल के धर्मनिरपेक्ष
राष्ट्र होने का उल्लेख था.उस रिपोर्ट के आधार पर लोग यह मानकर चल रहे थे कि नेपाल
अब स्थाई तौर पर धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बन जायेगा.वैसे तो वहां की स्थापित गैर-कम्युनिस्ट
पार्टियों में हिन्दू राष्ट्र के प्रति एक दुर्बलता रही है.किन्तु हैरत की बात यह है
कि जो कम्युनिस्ट हिन्दू राष्ट्र की जगह धर्मनिरपेक्ष नेपाल के प्रबल पक्षधर रहे हैं,उन्हें रातोरात अब ‘धर्मनिरपेक्ष’
शब्द से विरक्ति हो गयी है.उनके इस भावांतरण के फलस्वरूप नेपाल
पुनः हिन्दू राष्ट्र बनने के लिए अभिशप्त होता दिख रहा है.सवाल है धर्म को अफीम बताने
वाले नेपाल के कम्युनिस्टों ने धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर यू-टर्न क्यों लिया ?
इसके पीछे समाज
शास्त्रीय कारण है,और वह कारण यह है कि जाति समाज में लोगों
की सोच स्व-जाति/वर्ण की स्वार्थ सरिता के मध्य घूर्णित होती रहती है.भारत का अध्ययन
बताता है कि ऐसे समाज में जन्मे बड़े से साधु-संत,राजा-महाराजा,लेखक-एक्टिविस्ट भी समग्र वर्ग की चेतना से
कंगाल होते हैं.नेपाल भी एक जाति समाज है जहां की राजनीति में हावी कम्युनिस्ट पार्टियों
में नेतृत्व के स्तर पर ब्राह्मणों का बोलबाला है.चूंकि नेपाल के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र
बनने पर ब्राह्मण-क्षत्रियों का शक्ति के स्रोतों पर वह प्रभुत्व नहीं रह पायेगा,जो हिन्दू राष्ट्र में हैं.इसलिए धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार
कम्युनिस्टों ने,यह जानते हुए भी कि ढेरों जनजातीय संगठन धर्मनिरपेक्ष
राष्ट्र के पक्ष में हैं, ब्राह्मण-क्षत्रिय
हित में धर्मनिरपेक्षता को ख़ारिज करने का फैसला किया है. अगर नेपाल फिर से हिन्दू राष्ट्र
बनता है तो यह वहां के लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि वहां के दलित-कम्युनिस्ट
इसके खिलाफ हथियार उठाने का एलान कर चुके हैं.सबसे बुरी बात तो यह होगी कि राजशाही
के खात्मे के बाद हिंदूवादी-व्यवस्था से राहत पाई वहां की 75 प्रतिशत वंचित आबादी इसे एक आघात के रूप में लेगी जिसका निश्चय ही बड़ा कुप्रभाव
नेपाल में विकसित हो रहे लोकतंत्र पर पड़ेगा.