[जहां
तक
भारत
का
सवाल
है,
जैसे
उसने
श्रीलंका
के
साथ
किया,
वैसा
ही
समझौता
वह
हर
दक्षेस
राष्ट्र
के
साथ
कर
लेगा।
भारत
और
शेष
दक्षेस
राष्ट्र
तो
आगे
निकल
जाएंगे,
लेकिन
पाकिस्तान
जहां
खड़ा
है,
वहीं
खड़ा
रह
जाएगा।
नेपाली
नेताओं
को
शाबाशी
देनी
होगी
कि
उन्होंने
मोदी
और
शरीफ
के
बीच
सलाम-दुआ
करवा
दी।
क्या
इसी
बहाने
अब
दोनों
देशों
में
बातचीत
शुरू
नहीं
हो
जानी
चाहिए?
हो
सकता
है
कि
कश्मीरी
चुनाव
के
बाद
यह
संभव
हो
जाए।
यदि
ऐसा
होगा
तो
दक्षेस
का
19 वां
सम्मेलन,
जो
कि
इस्लामाबाद
में
होगा,
अब
तक
के
सभी
सम्मेलनों
से
अधिक
सार्थक
और
अधिक
सफल
होगा।]
डॉ.
वेदप्रताप
वैदिक
दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ, दक्षेस
का
18वां
सम्मेलन
काठमांडू
में
हुआ,
लेकिन
यह
सवाल
दक्षेस-नेताओं
से
पूछा
जाना
चाहिए
कि
यह
क्षेत्रीय
संगठन
क्या
18 कदम
भी
आगे
बढ़
पाया
है?
यह
ठीक
है
कि
सदस्य
राष्ट्रों
के
बीच
तू-तू
मैं-मैं
नहीं
हुई,
लेकिन
औपचारिक
प्रस्तावों
के
अलावा
क्या
हुआ?
इस
संगठन
को
30 साल
हो
रहे
हैं,
लेकिन
इतने
वर्षों
में
वह
अपना
नाम
भी
नहीं
ढूंढ़
पाया।
अभी
भी
उसे
‘सार्क’
कहा
जाता
है।
क्या
दक्षिण
एशिया
की
सारी
भाषाएं
इतनी
निर्बल
हैं
कि
वे
उसे
आम
आदमी
के
समझने
लायक
नाम
भी
न
दे
सकें?
दक्षिण
एशियाई
क्षेत्रीय
सहयोग
संघ
(दक्षेस)
नाम
अब
से
30 साल
पहले
मैंने
लिखना
शुरू
किया
था।
उसे
आधिकारिक
रूप
से
स्वीकार
करना
तो
दूर
रहा,
हमारे
प्रधानमंत्रियों
को
दक्षेस-सम्मेलनों
में
अंगरेजी
झाड़ते
हुए
जरा
भी
संकोच
नहीं
होता।
दक्षेस
के
सभी
नेताओं
से
मेरा
सवाल
है
कि
उनके
भाषण
क्या
जनता
समझ
पाती
है?
यदि
वे
अपनी
भाषाओं
में
बोलें
तो
उनकी
जनता
तो
उत्साहित
होगी
ही,
उसके
सद्यः
अनुवादों
से
दक्षेस
के
एक
अरब
70 करोड लोग
दक्षेस
में
सीधी
रुचि
लेने
लगेंगे।
पिछले
30 वर्षों
में
सिर्फ
एक
बार
मालदीव-सम्मेलन
में
मेरे
अनुरोध
पर
प्रधानमंत्री
चंद्रशेखर
ने
हिंदी
में
धाराप्रवाह
भाषण
दिया
था,
जिसकी
सराहना
भारत,
पाकिस्तान,
नेपाल,
बांग्लादेश
और
भूटान
में
जमकर
हुई
थी।
जब
तक
दक्षेस
की
गतिविधियों
को
जन-भाषा
में
जनता
से
नहीं
जोड़ेंगे,
इसकी
रफ्तार
बराबर
बेढंगी
बनी
रहेगी।
काठमांडू
सम्मेलन
में
भी
अनेक
प्रस्ताव
पारित
हुए।
जैसे
पारस्परिक
व्यापार,
आवागमन,
विनिवेश
आदि
बढ़ना।
आतंकवाद
का
साझा
मुकाबला
करना।
खेती,
चिकित्सा,
सूचना,
जन-संपर्क,
शिक्षा,
ऊर्जा
आदि
मामलों
में
सहयोग
बढ़ाना।
कालाधन,
नकली
मुद्रा,
अपराधों
को
रोकना।
इन
सब
मुद्दों
पर
कई
बार
प्रस्ताव
पारित
करने
के
बावजूद
ठोस
कार्रवाई
क्या
हुई?
यदि
ऐसा
होता
तो
पूरा
दक्षिण
एशिया
मुक्त-व्यापार
क्षेत्र
बन
जाता।
2004 में
यह
प्रस्ताव
पारित
हुआ
था।
पहले
तीन
साल
में
20 प्रतिशत
तटकर
घटाया
गया
होता
और
आठ
साल
में
वह
शून्य
हो
गया
होता
तो
आज
सभी
देशों
का
आपसी
व्यापार
उनके
कुल
विश्व-व्यापार
का
क्या
सिर्फ
5 प्रतिशत
रहता?
दक्षेस
के
मुकाबले
यूरोपीय
संघ
और
अासियान
के
देश
आपस
में
20 से
30 प्रतिशत
व्यापार
करते
हैं।
भारत
के
पड़ोसी
देश
अगर
चाहें
तो
वे
अपना
50 प्रतिशत
व्यापार
आपस
में
कर
सकते
हैं।
यातायात
और
करमुक्ति
से
जितनी
बचत
होगी,
उसकी
कल्पना
की
जा
सकती
है।
आजकल
सिर्फ
भारत
और
श्रीलंका
ने
मुक्त-व्यापार
से
अपूर्व
छलांग
लगाई
है।
अगर
यही
परंपरा
आगे
बढ़े
तो
हम
अपने
सदस्य-देशों
में
सैकड़ों
कल-कारखाने
लगा
सकते
हैं
और
लाखों-करोड़ों
मजदूर
एक-दूसरे
के
देशों
में
काम
कर
सकते
हैं।
लेकिन
दक्षेस
जब
से
प्रारंभ
हुआ
है,
दो
भूत
इसके
सिर
पर
मंडरा
रहे
हैं।
आज
तक
उनका
इलाज
करने
वाला
कोई
राजवैद्य
दक्षिण
एशिया
में
पैदा
नहीं
हुआ
है।
पहला
भूत
है-
भारत
को
घेरने
का
इरादा!
बांग्लादेश
के
तत्कालीन
राष्ट्रपति
जियाउर
रहमान
ने
दक्षेस
की
नींव
रखते
समय
कहीं
न
कहीं
यह
कह
डाला
था
कि
भारत
इस
क्षेत्र
का
सबसे
बड़ा
ताकतवर
देश
है।
उसके
सामने
सभी
छोटे-मोटे
पड़ोसी
देशों
को
एकजुट
करना
जरूरी
है।
यह
सामूहिक
भय
अब
भी
जीवंत
है।
आश्चर्य
है
कि
नेपाल
ने
इस
भारत-भय
को
बढ़ाने
में
इस
बार
विशेष
सक्रियता
दिखाई।
भारत
के
प्रधानमंत्री
ने
नेपाल
को
एक
अरब
डाॅलर
की
सहायता
दी
तथा
अन्य
कई
समझौते
किए।
इनका
सीधा
लाभ
नेपाली
जनता
को
मिलेगा,
लेकिन
नेपाल
ने
पूरी
कोशिश
की
कि
चीन
को
वह
दक्षेस
में
घुसा
ले।
पाकिस्तान,
श्रीलंका
और
मालदीव
के
नेताओं
ने
भी
घुमा-फिराकर
वही
बात
कही।
इस
समय
चीन
दक्षेस
में
अमेरिका,
बर्मा,
ईरान
की
तरह
केवल
पर्यवेक्षक
है।
उसे
ये
देश
दक्षेस
में
लाना
चाहते
हैं
ताकि
वह
भारत
की
काट
कर
सके।
दुनिया
के
सारे
क्षेत्रीय
संगठनों
में
दक्षेस
की
यह
खूबी
है
कि
उसका
एक
देश
भारत
सभी
देशों
से
बहुत
बड़ा
है
और
ऐसा
अकेला
देश
है,
जिसकी
सीमा
सभी
सदस्य-राष्ट्रों
से
मिलती
है।
चीन
ने
दक्षेस-सम्मेलन
में
इस
बार
अपने
उपराष्ट्रपति
को
पर्यवेक्षक
बनाकर
भेजा,
जो
साधारण
बात
नहीं
है।
दक्षिण
एशियाई
राष्ट्रों
से
चीन
अपना
व्यापार
150 अरब
डाॅलर
तक
बढ़ाना
चाहता
है।
वह
इन
देशों
में
30 अरब
डाॅलर
की
पूंजी
भी
लगाना
चाहता
है।
पाकिस्तान
के
साथ
तो
उसके
घनिष्ट
संबंध
लंबे
समय
से
हैं
ही,
अब
उसने
भारत
के
अन्य
सभी
पड़ोसियों
के
साथ
रिश्तों
को
नई
ऊंचाइयां
देनी
शुरू
कर
दी
हैं।
वह
‘अपनी
शंघाई
सहयोग
परिषद’
में
भारत
को
पर्यवेक्षक
के
दर्जे
से
ऊंचा
उठाकर
सदस्य
का
दर्जा
देना
चाहता
है,
लेकिन
बदले
में
वह
दक्षेस
का
सदस्य
बनना
चाहता
है।
उसने
काठमांडू-सम्मेलन
आयोजित
करने
के
लिए
नेपाल
को
प्रचुर
सहायता
भी
दी
थी
ताकि
उसका
डंका
बजता
रहे।
चीन
को
दक्षेस
का
सदस्य
बनाना
बिल्कुल
भी
तर्कसंगत
नहीं
है।
वह
दक्षिण
एशिया
का
अंग
नहीं
है।
अभी
ज्यादा
जरूरत
ईरान
और
बर्मा
को
सदस्य
बनाने
की
है।
दक्षेस
के
सारे
देशों
का
भारत
से
नाभि-नाल
संबंध
रहा
है।
इतिहास
में
वे
कभी
भारत
के
अंग
रहे
हैं
या
भारत
उनका
अंग
रहा
है।
इस
प्राचीन
आर्यावर्त
में
चीन
का
स्थान
कहां
है?
अभी
पाकिस्तान
की
वजह
से
इतना
गतिरोध
बना
हुआ
है।
चीन
आ
गया
तो
दक्षेस
अखाड़ा
बन
जाएगा।
दक्षेस
का
दूसरा
भूत
है,
भारत-पाक
रोड़ा।
दोनों
के
संबंध
हमेशा
इतने
खराब
रहे
हैं
कि
वे
दक्षेस
को
ठप
कर
देते
हैं।
दोनों
राष्ट्र
आतंकवाद
से
सबसे
ज्यादा
ग्रस्त
हैं
लेकिन
उनका
आपस
में
कोई
सहयोग
नहीं
है।
यातायात
और
रेल
मार्ग
के
बारे
में
इस
बार
पाकिस्तान
ने
अपनी
असमर्थता
जता
दी।
इसका
सबसे
ज्यादा
नुकसान
किसे
होगा?
पाकिस्तान
को।
यदि
पाकिस्तान
का
थल-मार्ग
दक्षेस
देशों
के
लिए
खुल
जाए
तो
उसके
जरिये
होने
वाले
यातायात
और
आवागमन
की
आमदनी
करोड़ों
रुपए
रोज
में
होगी।
पश्चिम
एशिया
की
तेल
और
गैस
की
पाइप
लाइनें
दक्षिण
एशिया
को
ऊर्जा
से
भर
देंगी।
पाकिस्तान
को
पैसा
तो
मिलेगा
ही,
दक्षिण
एशिया
के
टैंटुए
पर
भी
उसकी
अंगुलियां
धरी
रहेंगी।
दक्षिण
एशिया
के
लगभग
डेढ़
अरब
गरीब,
ग्रामीण,
अशिक्षित
लोगों
के
लिए
नए
सवेरे
का
सूत्रपात
होगा।
मध्य
एशिया
की
खदानें
उनके
लिए
सोना,
चांदी,
गैस,
तेल
और
लोहा
उगलेंगी
।
सच
पूछा
जाए
तो
दक्षिण
एशिया
के
ताले
की
चाबी
पाकिस्तान
के
हाथ
में
है।
यदि
पाकिस्तान
इस
ताले
को
खोलता
है
तो
सबसे
ज्यादा
फायदा
उसका
ही
है।
जहां
तक
भारत
का
सवाल
है,
जैसे
उसने
श्रीलंका
के
साथ
किया,
वैसा
ही
समझौता
वह
हर
दक्षेस
राष्ट्र
के
साथ
कर
लेगा।
भारत
और
शेष
दक्षेस
राष्ट्र
तो
आगे
निकल
जाएंगे,
लेकिन
पाकिस्तान
जहां
खड़ा
है,
वहीं
खड़ा
रह
जाएगा।
नेपाली
नेताओं
को
शाबाशी
देनी
होगी
कि
उन्होंने
मोदी
और
शरीफ
के
बीच
सलाम-दुआ
करवा
दी।
क्या
इसी
बहाने
अब
दोनों
देशों
में
बातचीत
शुरू
नहीं
हो
जानी
चाहिए?
हो
सकता
है
कि
कश्मीरी
चुनाव
के
बाद
यह
संभव
हो
जाए।
यदि
ऐसा
होगा
तो
दक्षेस
का
19 वां
सम्मेलन,
जो
कि
इस्लामाबाद
में
होगा,
अब
तक
के
सभी
सम्मेलनों
से
अधिक
सार्थक
और
अधिक
सफल
होगा।