October 13, 2013

INDIAN GOVERNMENT HAS RECOGNIZED 'ASURS' AS ONE OF ITS ANCIENT PEOPLES

[Posted today is a short article on Sushmā Asūra (सुषमा असुरfrom  Sakhuwapani Gūrdāri Panchyat, Bishanpura, Gumla District of Jhārkhanda, India.  She is the first creative writer from  her community. "Asūras are also like human beings and by no means any so called ‘demons’ as depicted in traditional religious literatures", she asserts. She says that Dashain or Vijayā Dashamī is a 'religious festival' of prejudice and discrimination against the Asurs. It must not be observed the way people do it until today. She is often invited to different programs and offered felicitations by those program organizers. She was the Chief Guest of Srawanotshav, an yearly public program organized last year by Santhals of West Bengal. The Santhals believe they are the progenies of Ravan. There are some Santhals in the eastern Tarai of Nepal today. And besides Chhatisgarh and Jharkhand in India, there are some Asūras  in the Tarai of West Bengal  also. In the ancient Mesopotamia, present day Northern Iraq, in 3000 BC, there was an Ashur,  the war god considered the greatest among the gods in Assyria. Today is Mahanavami, the 9th day of Bada Dashain, Vijaya Dashami, Dashahara or Navaratri, being celebrated all over Nepal and some parts of India also. According to Devi Bhagvat Puran Goddess Durga  killed Mahishasur in the evening of Mahanavami to secure Indra's Swrg or heaven which was forcibly snatched away by the latter. - The Blogger]


मैं वंशज महिषासुरका
विजयादशमी, दशहरा या नवरात्रि का हिन्दू धार्मिक उत्सव असुर राजा महिषासुर उसके अनुयायियों के आर्यों द्वारा वध और सामूहिक नरसंहार का अनुष्ठान है. समूचा वैदिक साहित्य सुर-असुर के युद्ध वर्णनों से भरा पड़ा है. लेकिन सच क्या है? असुर कौन हैं और भारतीय सभ्यता, संस्कृति और समाज-व्यवस्था के विकास में उनकी क्या भूमिका रही है .


लेखक अश्विनी कुमार पंकज
(सुषमा असुर)
इस दशहरा पर, आइये मैं आपका परिचय असुर वंश की एक युवती से करवाता हूं.

वास्तव में, सदियों से चले रहे असुरों के खिलाफ हिंसक रक्तपात के बावजूद आज भी झारखंड और छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों में 'असुरों' का अस्तित्व बचा हुआ है. ये असुर कहीं से हिंदू धर्मग्रंथों में वर्णित 'राक्षस' जैसे नहीं हैं. हमारी और आपकी तरह इंसान हैं. परंतु 21 वीं सदी के भारत में भी असुरों के प्रति तो नजरिया बदला है और ही उनके खिलाफ हमले बंद हुए हैं. शिक्षा, साहित्य, राजनीति आदि जीवन-समाज के सभी अंगों में 'राक्षसों' के खिलाफ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण का ही वर्चस्व है.

भारत सरकार ने 'असुर' को आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा है. अर्थात आदिवासियों में भी प्राचीन. घने जंगलों के बीच ऊंचाई पर बसे नेतरहाट पठार पर रहने वाली सुषमा इसी 'आदिम जनजाति' असुर समुदाय से आती है. सुषमा गांव सखुआपानी (डुम्बरपाट), पंचायत गुरदारी, प्रखण्ड बिशुनपुर, जिला गुमला (झारखंड) की रहने वाली है. वह अपने आदिम आदिवासी समुदाय असुर समाज की पहली रचनाकार है. यह साधारण बात नहीं है, क्योंकि वह उस असुर समुदाय से आती है जिसका लिखित अक्षरों से हाल ही में रिश्ता कायम हुआ है.

सुषमा इंटर पास है, पर अपने समुदाय के अस्तित्व के संकट को वह बखूबी पहचानती है. झारखंड का नेतरहाट, जो एक बेहद खूबसूरत प्राकृतिक रहवास है असुर आदिवासियों का, वह बिड़ला के बाक्साइट दोहन के कारण लगातार बदरंग हो रहा है. आदिम जनजातियों के लिए केन्द्र और झारखंड के राज्य सरकारों द्वारा आदिम जनजाति के लिए चलाए जा रहे विशेष कल्याणकारी कार्यक्रमों और बिड़ला के खनन उद्योग के बावजूद असुर आदिम आदिवासी समुदाय विकास के हाशिए पर है.

वे अघोषित और अदृश्य युद्धों में लगातार मारे जा रहे हैं. वर्ष 1981 में झारखंड में असुरों की जनसंख्या 9100 थी जो वर्ष 2003 में घटकर 7793 रह गई है, जबकि आज की तारीख में छत्तीसगढ़ में असुरों की कुल आबादी महज 305 है. वैसे छत्तीसगढ़ के अगरिया आदिवासी समुदाय को वैरयर एल्विन ने असुर ही माना है, क्योंकि असुर और अगरिया दोनों ही समुदाय प्राचीन धातुवैज्ञानिक हैं जिनका परंपरागत पेशा लोहे का शोधन रहा है.

आज के भारत का समूचा लोहा और स्टील उद्योग असुरों के ही ज्ञान के आधार पर विकसित हुआ है, लेकिन उनकी दुनिया के औद्योगिक विकास की सबसे बड़ी कीमत भी इन्होंने ही चुकायी है. 1872 में जब देश में पहली जनगणना हुई थी, तब जिन 18 जनजातियों को मूल आदिवासी श्रेणी में रखा गया था, उसमें असुर आदिवासी पहले नंबर पर थे, लेकिन पिछले डेढ़ सौ सालों में इस आदिवासी समुदाय को लगातार पीछे ही धकेला गया है.

झारखंड और छत्तीसगढ़ के अलावा पश्चिम बंगाल के तराई इलाके में भी कुछ संख्या में असुर समुदाय रहते हैं. वहां के असुर बच्चे मिट्टी से बने शेर के खिलौनों से खेलते तो हैं, लेकिन उनके सिर काटकर. क्योंकि उनका विश्वास है कि शेर उस दुर्गा की सवारी है, जिसने उनके पुरखों का नरसंहार किया था.

बीबीसी की एक रपट में जलपाईगुड़ी ज़िले में स्थित अलीपुरदुआर के पास माझेरडाबरी चाय बागान में रहने वाले दहारू असुर कहते हैं, महिषासुर दोनों लोकों- यानी स्वर्ग और पृथ्वी, पर सबसे ज्यादा ताकतवर थे. देवताओं को लगता था कि अगर महिषासुर लंबे समय तक जीवित रहा, तो लोग देवताओं की पूजा करना छोड़ देंगे. इसलिए उन सबने मिलकर धोखे से उसे मार डाला. महिषासुर के मारे जाने के बाद ही हमारे पूर्वजों ने देवताओं की पूजा बंद कर दी थी. हम अब भी उसी परंपरा का पालन कर रहे हैं.

सुषमा असुर भी झारखंड में यही सवाल उठाती हैं. वह कहती हैं, मैंने स्कूल की किताबों में पढ़ा है कि हमलोग राक्षस हैं और हमारे पूर्वज लोगों को सताने, लूटने, मारने का काम करते थे. इसीलिए देवताओं ने असुरों का संहार किया. हमारे पूर्वजों की सामूहिक हत्याएं कीं. हमारे समुदाय का नरसंहार किया.

हमारे नरंसहारों के विजय की स्मृति में ही हिंदू लोग दशहरा जैसे त्योहारों को मनाते हैं, जबकि मैंने बचपन से देखा और महसूसा है कि हमने किसी का कुछ नहीं लूटा. उल्टे वे ही लूट-मार कर रहे हैं. बिड़ला हो, सरकार हो या फिर बाहरी समाज हो, इन सभी लोगों ने हमारे इलाकों में आकर हमारा सबकुछ लूटा और लूट रहे हैं. हमें अपने जल, जंगल, जमीन ही नहीं बल्कि हमारी भाषा-संस्कृति से भी हर रोज विस्थापित किया जा रहा है, तो आपलोग सोचिए राक्षस कौन हैं!

यहां यह जानना भी प्रासंगिक होगा कि भारत के अधिकांश आदिवासी समुदाय 'रावण' को अपना वंशज मानते हैं. दक्षिण के अनेक द्रविड़ समुदायों में रावण की आराधना का प्रचलन है. बंगाल, उड़ीसा, असम और झारखंड के आदिवासियों में सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय 'संताल' भी स्वयं को रावण का वंशज घोषित करता है.

झारखंड-बंगाल के सीमावर्ती इलाके में तो बाकायदा नवरात्रि या दशहरा के समय ही 'रावणोत्सव' का आयोजन होता है. यही नहीं संताल लोग आज भी अपने बच्चों का नाम 'रावण' रखते हैं. झारखंड में जब 2008 में 'यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस', यूपीए) की सरकार बनी थी संताल आदिवासी समुदाय के शिबू सोरेन जो उस वक्त झारखंड के मुख्यमंत्री थे, उन्होंने रावण को महान विद्वान और अपना कुलगुरु बताते हुए दशहरे के दौरान रावण का पुतला जलाने से इंकार कर दिया था.

मुख्यमंत्री रहते हुए सोरेन ने कहा था कि कोई व्यक्ति अपने कुलगुरु को कैसे जला सकता है, जिसकी वह पूजा करता है. गौरतलब है कि रांची के मोरहाबादी मैदान में पंजाबी और हिंदू बिरादरी संगठन द्वारा आयोजित विजयादशमी त्योहार के दिन मुख्यमंत्री द्वारा ही रावण के पुतले को जलाने की परंपरा है. भारत में आदिवासियों के सबसे बड़े बुद्विजीवी और अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वान स्व. डॉ. रामदयाल मुण्डा का भी यही मत था.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ आदिवासी समुदाय और दक्षिण भारत के द्रविड़ लोग ही रावण को अपना वंशज मानते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदायूं के मोहल्ला साहूकारा में भी सालों पुराना रावण का एक मंदिर है, जहां उसकी प्रतिमा भगवान शिव से बड़ी है और यहां दशहरा शोक दिवस के रूप में मनाया जाता है. इसी तरह इंदौर में रावण प्रेमियों का एक संगठन है, लंकेश मित्र मंडल.

राजस्थान के जोधपुर में गोधा एवं श्रीमाली समाज वहां के रावण मंदिर में प्रति वर्ष दशानन श्राद्ध कर्म का आयोजन करते हैं और दशहरे पर सूतक मानते हैं. गोधा एवं श्रीमाली समाज का मानना है कि रावण उनके पुरखे थे उनकी रानी मंदोदरी यहीं के मंडोरकी थीं. पिछले वर्ष जेएनयू में भी दलित-आदिवासी और पिछड़े वर्ग के छात्रों ने ब्राह्मणवादी दशहरा के विरोध में आयोजन किया था.

सुषमा असुर पिछले वर्ष बंगाल में संताली समुदाय द्वारा आयोजित श्रावणोत्सव्य में बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुई थीं. अभी बहुत सारे लोग हमारे संगठन झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखडा को अप्रोच करते हैं सुषमा असुर को देखने, बुलाने और जानने के लिए. सुषमा दलित-आदिवासी और पिछड़े समुदायों के इसी सांस्कृतिक संगठन से जुड़ी हुई है.

कई जगहों पर जा चुकी और नये निमंत्रणों पर सुषमा कहती हैं, 'मुझे आश्चर्य होता है कि पढ़ा-लिखा समाज और देश अभी भी हम असुरों को कई सिरों, बड़े-बड़े दांतो-नाखुनों और छल-कपट जादू जानने वाला जैसा ही राक्षस मानता है. लोग मुझमें राक्षस ढूंढते हैं, पर उन्हें निराशा हाथ लगती है. बड़ी मुश्किल से वे स्वीकार कर पाते हैं कि मैं भी उन्हीं की तरह एक इंसान हूं. हमारे प्रति यह भेदभाव और शोषण-उत्पीडऩ का रवैया बंद होना चाहिए. अगर समाज हमें इंसान मानता है तो उसे अपने सारे धार्मिक पूर्वाग्रहों को तत्काल छोडऩा होगा और सार्वजनिक अपमान नस्लीय संहार के उत्सव विजयादशमी को राष्ट्रीय शर्म के दिन के रूप में बदलना होगा.'