February 13, 2011

भारतीय अर्थ व्यवस्था, मनमोहन सिंह और बेलगाम भ्रष्टाचार

[देश में पिछले एक साल में सामने आए पांच बड़े घोटालों में सरकारी खजाने को जितने का चूना लगा है, वह दो साल का राजकोषीय घाटा पाटने के लिए काफी है। इन घोटालों में करीब पांच (4.82) लाख करोड़ रुपये की चपत लगी है। यह रकम कितनी बड़ी है, इसका अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि वित्त वर्ष २०१०-११ के लिए भारत का सालाना खर्च 11.8 लाख करोड़ रुपये है। घोटाले में गंवाई गई रकम इसके आधे से थोड़ी ही कम है।]

नई दिल्ली. वित्‍त मंत्री प्रणव मुखर्जी साल 2011-2012 का बजट पेश करने की तैयारी में जी-जान से जुटे हैं। वह बताएंगे कि एक साल में सरकार कितना खर्च करेगी और उसे कितनी आमदनी होगी। पूरी उम्‍मीद है कि हर बार की तरह इस बार भी आमदनी से ज्‍यादा खर्च का ही अनुमान होगा। इस साल भी यही हुआ है और राजकोषीय घाटा (सरकार के खर्च-आमदनी का अंतर) करीब 3.८० लाख करोड़ रुपये है। पर इसमें भ्रष्‍टाचारियों की बहुत बड़ी भूमिका है।


देश में पिछले एक साल में सामने आए पांच बड़े घोटालों में सरकारी खजाने को जितने का चूना लगा है, वह दो साल का राजकोषीय घाटा पाटने के लिए काफी है। इन घोटालों में करीब पांच (4.82) लाख करोड़ रुपये की चपत लगी है। यह रकम कितनी बड़ी है, इसका अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि वित्त वर्ष २०१०-११ के लिए भारत का सालाना खर्च 11.8 लाख करोड़ रुपये है। घोटाले में गंवाई गई रकम इसके आधे से थोड़ी ही कम है।


गौरतलब है कि देश की जीडीपी (सकल घरेलू उत्‍पाद, जिसके आधार पर विकास दर तय होती है) करीब ५५ लाख करोड़ रुपये है। इस रकम का 10 फीसदी केवल उन चंद लोगों की जेब में पहुंच गया, जिन्‍होंने ये 5 बड़े घोटाले किए।

देश को क्‍या नुकसान

इन घोटालों के चलते जनता को हुए नुकसान का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वित्त वर्ष २०१०-११ के लिए सर्व शिक्षा अभियान का बजट सिर्फ 15,000 करोड़ रुपये है। ग्रामीण इलाकों में हर हाथ को काम देने की महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा के लिए 40,100 करोड़ रुपये, देश की बाहरी दुश्मनों से हिफाजत के लिए रक्षा बजट 1,47,344 करोड़ रुपये और स्कूलों में दोपहर के भोजन के लिए 9,300 करोड़ रुपये की रकम तय की गई थी। साफ है कि घोटाले में खोयी गई रकम से इन सभी योजनाओं को कई सालों तक चलाया जा सकता है।  

सिर्फ २ जी घोटाले की रकम 1.76 लाख करोड़ रुपये से देश में क्या-क्या हो सकता है

१. दिल्ली-मुंबई-चेन्नई और कोलकाता को जोड़ने वाली स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क योजना में लगने वाले खर्च की चार गुना है यह रकम। 

२. इतनी रकम में 30 लाख बसें खरीदी जा सकती हैं

३. नागार्जुन सागर जैसे करीब 1868 बांध बनाए जा सकते हैं।

४. 25 लाख नर्सिंग होम स्थापित किए जा सकते हैं, जिससे देश के करोड़ों लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मिल सकती हैं। 

५. 30 लाख स्कूलों का निर्माण किया जा सकता है, जिससे हमारी साक्षरता दर 65 फीसदी से बढ़कर काफी ज़्यादा हो सकती है।

६. 35 करोड़ कंप्यूटर खरीदे जा सकते हैं, जिससे भारत दुनिया की आईटी राजधानी बन सकता है। 

७.504 फाइटर जेट्स खरीदे जा सकते हैं, जिससे भारत का रक्षा तंत्र मजबूत हो सकता है।


इन ५ घोटालों में गए ५ लाख करोड़ 

कॉमनवेल्थ खेल आयोजन: भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन ने 2003 में जब कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन का अधिकार हासिल किया था, तब एसोसिएशन ने 1,620 करोड़ रुपये के बजट खर्च का अंदाजा लगाया था। लेकिन 2010 तक आते-आते यह बजट करीब 11,500 करोड़ तक पहुंच गया। इसमें दिल्ली के विकास और सौंदर्यीकरण का बजट शामिल नहीं है। जानकार मानते हैं कि इस खेल के आयोजन और इससे जुड़े सौंदर्यीकरण पर करीब 70 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए। हालांकि, इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है। इसमें दिल्ली में होने वाले विकास कार्य भी शामिल हैं। माना जाता है कि इस राशि में ज़्यादातर रकम घपले-घोटाले की भेंट चढ़ गई। इस मामले में जांच अब भी जारी है।


2 जी घोटाला : पूर्व केंद्रीय दूरसंचार मंत्री ए. राजा पर आरोप है कि उन्होंने कम दाम पर 2 जी स्पेक्ट्रम का आवंटन कर सरकारी खजाने को करीब 1.76 लाख करोड़ रुपये की चपत लगाई है। यह रकम सीएजी के आकलन पर आधारित है।


एस बैंड स्पेक्ट्रम आवंटन: एस बैंड स्पेक्ट्रम के आवंटन में सरकार को करीब 2 लाख करोड़ रुपये का चूना लगने का अंदाजा है। यह भी सीएजी का आकलन है। इस मामले में सीएजी की रिपोर्ट पूरी नहीं हुई है। हालांकि, सरकार पिछले साल जुलाई में ही एस बैंड स्पेक्ट्रम के आवंटन रद्द करने का फैसला कर चुकी है। अभी समझौता आधिकारिक तौर पर रद्द नहीं हुआ है। यही दलील देकर सरकार घोटाले के आरोपों से बच भी रही है। 


आदर्श हाउसिंग घोटाला: कारगिल शहीदों के नाम पर मुंबई के कोलाबा के पॉश इलाके में सोसाइटी के नाम पर जमीन आवंटित कराने के बाद करीब ३१ मंजिला इमारत खड़ी की गई। इसमें करीब १०३ सदस्य हैं। एक फ्लैट की खुले बाज़ार में औसत कीमत करीब ६ से ८.५ करोड़ है। इसे करीब दस फीसदी कीमत देकर करीब ६० से ८५ लाख रुपये में बुक कराया गया। इस तरह से पूरी इमारत की कीमत करीब ९.५ अरब रुपये के आसपास है, लेकिन इसके लिए महज ६० से ८५ करोड़ रुपये ही चुकाए गए। इस तरह ज़मीन के गलत इस्तेमाल के अलावा बाजार दर पर आवंटियों ने करीब ९ अरब रुपये का फायदा उठाया।


खाद्यान्न घोटाला: उत्तर प्रदेश में करीब 35,000 करोड़ रुपये का खाद्यान्न घोटाला २०१० में उजागर हुआ। दरअसल, यह अंत्योदय, अन्नपूर्णा और मिड डे मील जैसी खाद्य योजनाओं के तहत आने वाले अनाज को बेचने का है। यह घोटाला 2001 से 2007 के बीच हुआ था। राज्‍य में इन योजनाओं के तहत आवंटित चावल की भी कालाबाजारी की गई। कुछ अनुमानों के मुता‍बिक इस तरह 2 लाख करोड़ रुपये के वारे-न्‍यारे करने का आरोप है।


[विभिन्न रिपोर्ट एवं आंकड़ों से जाहिर होता है कि वर्ष 1991 में जब मौजूदा प्रधानमंत्री वित्त मंत्री बने थे और उन्होंने उदारीकरण की नीति अपनाते हुए देश की अर्थव्यवस्था को खुले बाजार की पटरी पर दौड़ाई थी, तभी से वित्तीय और पूंजीगत अपराधीकरण के साथ-साथ भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति भी तेज हो गई। यह भी स्पष्टï है कि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद ये प्रवृत्तियां ज्यादा बेलगाम हुई हैं। ]

-लेखक  भीम सिंह 

विकास के मुद्दे पर बिहार के नीतीश कुमार प्रचंड बहुमत के साथ एक बार फिर सत्ता पर काबिज हो गए। मनमोहन सिंह भी भारतीय अर्थव्यवस्था को चमकाने का सपना दिखाकर दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं। नीतीश कुमार की नीतियों का वास्तविक असर आने वाले समय में दिखेगा, लेकिन मनमोहन सिंह की नीतियों के प्रभाव धीरे-धीरे सामने आने लगे हैं। वर्ष 1991 में वे केंद्रीय वित्त मंत्री बने थे और तभी से उदारीकरण की नीति अपनाकर उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खूब वाहवाही लूटी थी। उनकी दूसरी पारी तब शुरू हुई, जब वे तकरीबन 6 वर्ष पहले सोनिया गांधी की कृपा से प्रधानमंत्री बने। उनके मौजूदा कार्यकाल और पिछले कार्यकाल को भारत की तगड़ी आर्थित तरक्की के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और संगठनों की ओर से जो रिपोर्ट जारी हो रही है, उनसे तो कम-से-कम यही लगता है कि उनके कार्यकाल में देश की अंदरुनी हालत बदतर हुई है। 


वॉशिंगटन स्थित 'ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी' की एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक आजादी के बाद कर की चोरी, अपराध और भ्रष्टïाचार के कारण भारत को कम-से-कम 450 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। हाल ही में उजागर हुए दूसरी पीढ़ी (2जी) का स्पेक्ट्रम घोटाला पौने लाख करोड़ रुपये का है। यह रकम उससे 10 गुनी है। रिपोर्ट कहती है कि इस घाटे के पीछे पूंजपति वर्ग और नीजि कंपनियों की बड़ी भूमिका रही है। 
इस रिपोर्ट के मुताबिक कर से बचने, गलत तरीकों से की गई कमाई, पूंजी को गुप्त रखने की प्रवृत्ति, घूसखोरी, भ्रष्टïाचार और गैरकानूनी धंधे छुपाने की कोशिशों के चलते यह धन भारत से विदेश चला गया। तेजी से देश से बाहर जाते धन का सीधा ताल्लुक देश में अमीर और गरीबों के बीच बढ़ते फासले से है। अमीर के पास ज्यादा पूंजी है, जिसे वह विदेश में छुपा रहा है। इसलिए गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं में जरूतर से कम खर्च किया जा रहा है। यानि विकास और उन्नति के लिए काम कम किए जा रहे हैं। 

यह रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद यह घाटा बढ़ा है। इस तमाम घाटे का 68 फीसदी उदारीकरण के बाद ही हुआ। यानि निजी कंपनियों के लिए बाजार खोले जाने के बाद से पूंजीगत अपराधीकरण तेजी से बढ़ा है। जैसे-जैसे उदारीकरण की नीति आगे बढ़ती गई, देश से पैसा बाहर जाने की तीव्रता भी उसी गति से बढ़ी। मसलन, भारत से काला धन दूसरे देशों में जानी की गति पिछले 5 वर्षों में सबसे तेज रही। 

दूसरी ओर दुनिया भर के अमीरों पर नजर रखने वाली पत्रिका 'फोब्र्स' के मुताबिक वर्ष 2009 में भारतीय अरबपतियों की संख्या दोगुनी हो गई। वर्ष 2008 में 24 भारतीय अबरपति थे, जिनकी संख्या वर्ष 2009 में 49 हो गई। इसके उलट ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से राज्यसभा को दी गई जानकारी के मुताबिक वर्ष 2004-05 के दौरान भारत में गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाली आबादी 30.17 करोड़ थी। जाहिर है, पिछले 5 वर्षों दौरान यह संख्या भी तेजी से बढ़ी है। मतलब यह कि देश में जिस गति से अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, उसी तीव्रता से गरीबी भी बढ़ रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि कथित रूप से आर्थिक महाशक्ति में तब्दील होते हमारे देश में गरीबी और अमीरी समान अनुपात में किस वजह से बढ़ रही है? इसी के साथ-साथ विदेशों में जाने वाले काले धन की मात्रा में भी दिनोंदिन इजाफा हो रहा है।

हाल ही में विश्व स्वस्थ्य संगठन ने भी एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक बीमारियों के इलाज पर होने वाले भारी खर्च की वजह से सालाना 10 करोड़ लोग गरीब हो रहे हैं। भारत जैसे कुछ देशों में प्रत्येक वर्ष 5 फीसदी आबादी इसलिए गरीब हो जाती है क्योंकि उन्हें स्वास्थ्य सेवाओं पर जरूरत से ज्यादा खर्च करना पड़ता है। यह रिपोर्ट कहती है कि करोड़ों लोग बीमारियों से इसलिए मर रहे हैं क्योंकि उनके पास इलाज करवाने के लिए धन नहीं है। ऐसे लोगों की संख्या भी लाखों में है, जो इलाज शुरू तो कर लेते हैं, लेकिन इसे जारी रखने के लिए उनके पास पर्याप्त धन नहीं होता और अंतत: उनकी मौत हो जाती है। 

इस रिपोर्ट में वर्ष 2007 में किए गए 'हार्वर्ड विश्वविद्यालय' के एक अध्ययन का हवाला दिया गया है, जिसके मुताबिक भारी-भरकम मेडिकल बिल की वजह से 62 फीसदी परिवार दीवालिया हो जाते हैं। 

जाहिर है, मौजूदा विकास की नीति और पैमाना चिंताजनक रूप से दोषपूर्ण हैं। आंकड़े और तथ्य यह भी दर्शाते हैं कि मनमोहन सिंह की उदारीकरण एवं तेज विकास की नीति ने देश की अर्थव्यवस्था का बाहरी आवरण तो चमका दिया है, लेकिन इसके नतीजे गंभीर हैं। अरबपतियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ते जाने, बाजार का विस्तार और कॉर्पोरेट जगत की मजबूत होती हुई स्थिति विकास के पैमाने कतई नहीं माने जा सकते क्योंकि इसी अर्थव्यवस्था के गवाह करोड़ों लोग दिनोंदिन गरीब होते जा रहे हैं, बीमारी के कारण मरने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है और भ्रष्टाचार एवं घोटालों के मामले तमाम सीमाएं लांघ चुके हैं। 

विभिन्न रिपोर्ट एवं आंकड़ों से जाहिर होता है कि वर्ष 1991 में जब मौजूदा प्रधानमंत्री वित्त मंत्री बने थे और उन्होंने उदारीकरण की नीति अपनाते हुए देश की अर्थव्यवस्था को खुले बाजार की पटरी पर दौड़ाई थी, तभी से वित्तीय और पूंजीगत अपराधीकरण के साथ-साथ भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति भी तेज हो गई। यह भी स्पष्टï है कि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद ये प्रवृत्तियां ज्यादा बेलगाम हुई हैं। 


दरअसल, भारतीय अर्थव्यवस्था मिश्रित प्रणाली की है, जिसमें राज्य का कामकाज उन आधारभूत नीति से बहुत ज्यादा प्रभावित होता है, जिसके तहत निजी अर्थव्यवस्था संचालित होती है। मतलब यह कि सरकार के आर्थिक एवं अन्य फैसलों का सीधा असर जनता पर होता है। जाहिर है, मौजूदा हालात के लिए सीधे-सीधे हमारी सरकार जिम्मेदार है।